क्या सिखों ने वाकई हिन्दू धर्म की रक्षा की?

क्या सिखों ने वाकई हिन्दू धर्म की रक्षा की? | Did Sikhs really protect Hindu religion?

मुगल काल हमारे लिए हिन्दू नायकों का काल था। हर कोई परस्पर एक दूसरे की रक्षा कर रहा था। हम सामूहिक शोषण से लड़कर आगे बढ़ रहे थे और अपने नायक गढ़ रहे थे।

    जब किसान आन्दोलन शुरू हुआ था तो बार-बार हिन्दुओं को यह कहकर अपमानित किया गया कि "सिख अगर न होते तो आज सारे हिन्दू मुस्लमान होते या कहें कि सिखों ने हिन्दू स्त्रियों की इज्जत लुटने से बचाई।" 

   समझ में यह नहीं आया कि किसान आन्दोलन में हिन्दू और सिख का मामला कहाँ से आ गया? और यदि आया भी तो इस प्रकार विवादास्पद क्यों? इसी सिलसिले में इन्टरनेट पर संजीव नैयर द्वारा लिखे गए एक लेख पर नज़र गयी।

आईये, गुरुओं के इतिहास के साथ कुछ तथ्यों पर रोशनी डालते हैं- 

   शुरुआत होती है गुरुनानक देव जी के साथ। जिनके 550वें प्रकाशपर्व को अभी हाल ही में सरकार द्वारा मनाया गया था। उनका जन्म भी हिन्दू परिवार में हुआ था तथा हिन्दू परिवार में ही उन्हें यह चेतना प्राप्त हुई कि उन्हें सत्य की खोज करनी है।

   गुरु नानक देव ने बाबर द्वारा किए गए अत्याचार भी देखे  और वह उनसे व्यथित भी हुए।  गुरु नानक के जो शिष्य थे उनमें हिन्दू ही अधिक थे तथा उन्होंने अपने अनुयाइयों को 'सिख' नाम दिया जो संस्कृत के 'शिष्य' से ही उपजा है। 

   दूसरे गुरु थे गुरु अंगद! गुरु अंगद भी हिन्दू ही थे। वह एक क्षत्रिय थे और गुरु नानक के प्रिय शिष्य थे। उन्होंने ही गुरु नानक की शिक्षाओं को गुरुमुखी में लिपिबद्ध कराया।

   तीसरे गुरु थे अमर दास भल्ला! यह भी क्षत्रिय थे अर्थात हिन्दू थे।

   सिखों के पांचवे गुरु थे गुरु अर्जुन! गुरु अर्जुन के साथ ही मुग़ल बादशाहों और सिख गुरुओं के मध्य संघर्ष के स्वर आरम्भ होते हैं। हर कोई जानता है कि मुग़ल वंश का इतिहास भाइयों, पिता-पुत्र के बीच गद्दी के लिए खूनी संघर्ष का इतिहास है।

   जहांगीर भी कुछ अलग नहीं था। जहांगीर की अय्याशियों से उसके पिता खुश नहीं थे और वह जहाँगीर के बेटे खुसरो को अधिक पसंद करते थे। खुसरो की सहायता गुरु अर्जुन देव ने की थी इसलिए जहाँगीर उनसे नाराज़ था और फिर उसने गुरु अर्जुन देव को यातना देकर मृत्यु के घाट उतार दिया। 

क्या सिखों ने वाकई हिन्दू धर्म की रक्षा की? | Did Sikhs really protect Hindu religion

   'तुजुके जहांगीर' में जहांगीर ने अर्जुन सिंह को एक हिन्दू कहकर ही संबोधित किया है। इसमें लिखा है- "गोबिंदवल में, जो ब्यास नदी के तट पर स्थित है! अर्जुन नामक एक हिन्दू संत के लिबास में रहता है और उसने कई हिन्दुओं और भोले भाले मुसलमानों को अपनी पवित्रता के जाल में फंसा रखा है..! कई बार मेरे दिमाग में आया भी कि यह सब बंद कर दूं या फिर उसे इस्लाम क़ुबूल करवा दूं। मगर जब उसने खुसरो का साथ दिया और उसके माथे पर केसर का टीका लगाया तो मैं समझ गया कि अब इसका अंत करना है और फिर मैंने आदेश दिया कि उसके बच्चों को मुर्तजा खान को सौंप दिया जाए और उसे मार डाला जाए।" 

 -THE TUZUK-I-JAHANGlRl or MEMOIKS OF JAHANGIR

   स्पष्ट है कि गुरु अर्जुन देव विद्रोह का शिकार हुए थे, बादशाह के खिलाफ विद्रोह करने का उन्हें दंड मिला था। इस पर बात हो सकती है कि यह शहादत धर्म के लिए थी या नहीं। क्योंकि जहाँगीर ने तब तक अर्जुन सिंह का विरोध नहीं किया था, जब तक उन्होंने खुसरो का साथ नहीं दिया था। परन्तु यह भी सत्य है कि पांचवे गुरु के बाद से ही सिख आध्यात्मिक से सैन्य शक्ति की ओर उन्मुख होना आरम्भ हुआ। 

   छठवें गुरु के साथ इतिहास और रोचक होता है और यहाँ से ही सिख एक सैन्य शक्ति बनते हैं। छठे गुरु थे गुरु हरगोबिंद। अपने पिता अर्जुन सिंह की मृत्यु के उपरान्त गुरु हरगोबिंद सिखों के छठवें गुरु बनते हैं। एवं इस बात की आवश्यकता अनुभव करते हैं कि सिखों को अब सैन्य शक्ति बनना होगा। इससे पहले तक सिख केवल आध्यात्मिक और धार्मिक पंथ ही था।  

   योगेन्द्र सिंह लिखते हैं कि 17वीं शताब्दी में लिखी गयी 'सिखन दी भगत रतन माला' के अनुसार गुरु हरगोबिंद को शस्त्र विद्या का ज्ञान दो राजपूतों राव सिगरा और राव जैता (Rao Sigara and Rao Jaita) ने सिखाई थी। जैसे ही जहांगीर को गुरु हर गोबिंद के इस सैन्य अभियान का पता चला वैसे ही उसे गुस्सा आया और उसने गुरु अर्जुन सिंह के शेष धन का हिसाब गुरु हर गोबिंद से माँगा और वह न मिलने पर गुरु हर गोबिंद को ग्वालियर के किले में बंदी बना लिया। 

    वह कितने वर्षों तक बंदी रहे, इसमें एकमत नहीं है और जहाँगीर ने क्यों छोड़ा? इसमें भी इतिहासकार एक मत नहीं है। कुछ का कहना है कि जहांगीर का दिल पिघल गया और कुछ कहते हैं कि जहांगीर की तबियत खराब हुई तो फकीरों ने कहा कि गुरु हर गोबिंद को छोड़ा जाए, जो कि दोनों ही असंभव सी लगती हैं। 

   Joseph Davey Cunningham द्वारा 'History of Sikhs from the Origin of the Nation to the Battles of the Sutlej' में यह लिखा है कि सिख वहां पर इकट्ठे हो गए थे, इसलिए दबाव के कारण छोड़ना पड़ा। गुरु को छुड़ाने के लिए सशस्त्र विद्रोह किया गया हो, ऐसा इतिहास में नहीं है।

   जहांगीर ने जब उन्हें छोड़ा तो उनके साथ 52 अन्य राजपूत राजाओं को भी छोड़ा, जिन्हें राजनैतिक कैदी बनाकर रखा हुआ था। उन्हीं 52 राजपूत राजाओं में से एक बिलासपुर के राजा ने ही गुरु के परिवार को अपने राज्य में शरण दी थी। 

   योगेन्द्र सिंह अपने लेख में लिखते हैं, "जब फरवरी 1620 में गुरु हर गोबिंद को ग्वालियर की जेल से रिहा किया गया, तो उनके साथ राठौड़ वंश के 52 राजपूत राजकुमार थे। इन राजपूतों ने ही सिखों की रक्षा के लिए 700 घुडसवारों की सेना बनाई थी।" 

   सिंह तो यह भी लिखते हैं कि पंजाब के वह जागीरदार जो गुरु हरगोबिन्द के छोड़े जाने से खुश नहीं थे, उन्होंने मुग़ल सेनापति अब्दुल खान के साथ मिलकर रोहिला में गुरु पर आक्रमण किया और इसलिए विफल हो गया क्योंकि राव मोहनजी राठौड़ के नेतृत्व में राजपूत उन दोनों के बीच खड़े थे। 

   जहांगीर द्वारा कैदी बनाए जाने के बाद उन्होंने कूटनीति की कला सीखी। यद्यपि  Joseph Davey Cunningham अपने पुस्तक में यह लिखा है कि हर गोबिंद जहांगीर के निकट आ गए थे और वह उनकी सेना में भी शामिल थे। पर 'तुजुके जहांगीरी' में ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिलता है। बल्कि प्रमाण यह कहते हैं कि गुरु 1634 से 1640 तक मुगलों के साथ युद्ध करते रहे और वह हिन्दुओं को इस बात के लिए प्रेरित करते रहे कि अत्याचार का लड़कर सामना करना चाहिए।  

   सिखों के छठवें गुरु, गुरु हरगोबिन्द को ही सिखों को सैन्य शक्ति बनाने का श्रेय दिया जाता है, तो इसमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह हिन्दू राजपूत ही थे जिन्होंनें छठवें गुरु की रक्षा की थी। 

   जबकि एक पुस्तक 'Sikh History from Persian Sources' में 'Sikhism and the Sikhs' 1645-46, Front ‘Mobad’, Dabistiin-i Ma;.ahib, जिसका अनुवाद इरफ़ान हबीब ने किया है, उसमें लिखा है कि गुरु हर गोबिन्द ने नैना देवी मंदिर में देवी की प्रतिमा तोड़े जाने का समर्थन किया था। (पृष्ठ 69)

   सातवें और आठवें गुरु के विषय में इतिहास में अधिक नहीं है। अब आते हैं सबसे महत्वपूर्ण गुरु गुरु तेगबहादुर पर! यह वह काल था जब औरंगजेब के क्रूर शासन से पूरा देश त्रस्त था। वह हर कीमत पर इस्लाम का शासन चाहता था और हिन्दुओं के हर बड़े नेता को कुचलना चाहता था। 

   जब कश्मीर के कुछ स्थानीय नेताओं ने उन्हें अपनी पीड़ा बताई कि औरंगजेब उन्हें हर हाल में मुसलमान बनाना चाहता है तो उन्होंने कहा कि औरंगजेब के पास संदेशा भेजा जाए कि वह पहले उन्हें मुसलमान बनाए। 

   औरंगजेब चूंकि और विद्रोह नहीं चाहता था, अत: उसने गुरु तेगबहादुर जी को दिल्ली बुलाया और उन्हें अपने तीन साथियों दीवान मती दास, सती दास और दयाल दास के साथ गिरफ्तार कर लिया गया। 

   दीवान मती दास और सती दास और दयाला तीनों ही ब्राह्मण जाति के थे अर्थात हिन्दू थे, जिन्होनें गुरु का साथ दिया था और उन्हें लोगों के सामने जिंदा ही आरी से काट दिया था। सती दास को रुई में लपेट कर जिंदा जला दिया गया था। और दयाला को पानी में उबाल कर मारा गया था। अर्थात जब गुरु तेग बहादुर जी ने कश्मीरी पंडितों का धर्म परिवर्तन न किया जाए, इसलिए अपने प्राण दिए थे तो उससे पहले इन तीन ब्राह्मणों ने अपने गुरु का साथ देने के लिए असहनीय यातनाएं सही थीं, पर न ही गुरु का साथ छोड़ा और न ही धर्म बदला।  

   गुरु तेग बहादुर जी से तीन शर्तों का पालन करने के लिए कहा गया या तो चमत्कार दिखाएं, या इस्लाम में आएं या फिर मृत्यु स्वीकारें। उन्होंने तीसरा विकल्प चुना। 

   इसी के साथ यह भी ध्यान देना महत्वपूर्ण है कि जब औरंगजेब पहले गुरु तेग बहादुर के पीछे पड़ा था तो राजपूतों ने न केवल उनकी रक्षा की थी बल्कि गुरुद्वारा बँगला साहिब भी सवाई जय सिंह ने उन्हें दिया था। 

   नौवें गुरु के बाद अब अंतिम गुरु, गुरु गोविन्द सिंह पर आते हैं। गुरु तेग बहादुर जी के बलिदान के बाद पंजाब अशांत हो गया था और मुगलों से रक्षा के लिए गुरु गोबिंद सिंह को तलवार उठानी पड़ी थी। जैसा खुशवंत सिंह अपनी पुस्तक 'A History of the Sikhs' में लिखते हैं कि "यह अस्तित्व की लड़ाई थी। गुरु गोबिंद सिंह ने देवी पूजा के उपरान्त जिन पंच प्यारों के साथ मिलकर सिख धर्म को बचाने का प्रण लिया था, वह सभी कौन थे?" 

  वह पाँचों ही हिन्दू थे। दयासिंह, धर्म सिंह (जाट), हिम्मत सिंह (कहार), मोहकम सिंह (छीपी), साहब सिंह (नाई)। ये सभी हिन्दू थे जिन्होनें सिख धर्म की रक्षा के लिए अपने प्राणों की परवाह नहीं की और वह गुरु गोबिंदसिंह के कहने पर अपना सर्वस्व बलिदान करने के लिए तत्पर हो गए थे।  

क्या सिखों ने वाकई हिन्दू धर्म की रक्षा की? | Did Sikhs really protect Hindu religion

   हिन्दू धर्म में पांच की संख्या को बहुत शुभ माना गया है, पञ्च तत्व, पञ्च महाभूत! इन पंच प्यारों के साथ गुरु गोबिंद सिंह ने खालसा पंथ का आरम्भ किया तथा सिखों की रक्षा के लिए सतत मुगलों के साथ युद्ध में लगे रहे। उनके दो पुत्र मुगलों के हाथ में पड़ गए और दोनों को ही इस्लाम न अपनाने के कारण दीवार में जिंदा चिनवा दिया गया। 

   इस क्रूरता का प्रतिशोध और किसी ने नहीं बल्कि एक हिन्दू बन्दा बैरागी ने लिया था।  बन्दा बैरागी जिसने मुग़ल सेना को इतना नुकसान पहुंचाया था कि वह सिखों की तरफ देख न सके, वह हिन्दू संत थे। वहीं गुरु गोविन्द सिंह द्वारा औरंगजेब को भेजे गए पत्र 'ज़फरनामा' में यह भी परिलक्षित होता है कि गुरु स्वयं मूर्ति भंजक थे। (GURU GOBIND SINGH Zafarnama Translated and introduced by Navtej Sarna, PENGUIN BOOKS) 

   "I vanquished the vicious hill chiefs, they were idol-worshippers and I am idol-breaker." (95). 

   दस गुरुओं के जीवन का अध्ययन करने के उपरान्त इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि प्रथम चार गुरु आध्यात्मिक गुरु थे। गुरु अर्जुन सिंह को खुसरो का साथ देने का दंड मिला था और छठवें गुरु ने राजपूतों के साथ मिलकर सिखों को एक सैन्य शक्ति बनाया था। गुरु तेगबहादुर जी ने इस्लाम न क़ुबूल करने के लिए अपना जीवन त्याग दिया तथा गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पन्थ की स्थापना मुगलों से लड़ाई करने के लिए की थी तथा उनका क़त्ल भी दो पठानों ने किया था। वह जीवन भर अपने धर्म की रक्षा के लिए लड़ते रहे। 

मनुवाद : प्रमाण सहित भंडाफोड़

   गुरुओं के प्रति पूरे सम्मान के साथ यह कहना चाहेंगे कि मुगल काल में जहाँ शासन के स्तर पर शोषण था तो वहीं राजपूत, जाट, मराठा, सिख जैसी शक्तियाँ थीं, जो परस्पर सनातन ध्वज तले अपना अपना संघर्ष कर रही थीं।  

   यह याद रखना चाहिए कि औरंगजेब के शासन काल में ही हिन्दुओं को अपना ऐसा नायक प्राप्त हुआ था, जिन्होनें हिन्द स्वराज की नींव डाली थी, जी हाँ, वह नायक थे शिवाजी!

   मुगल काल हमारे लिए हिन्दू नायकों का काल था। हर कोई परस्पर एक दूसरे की रक्षा कर रहा था। हम सामूहिक शोषण से लड़कर आगे बढ़ रहे थे और अपने नायक गढ़ रहे थे। 

     बइस लेख का उद्देश्य पाठकों के सामने यह प्रस्तुत करना है कि यह नैरेटिव कैसे बन गया, जिसमें क्रिकेटर युवराज सिंह के पिता योगराज जैसे लोग भीड़ के सामने यह कह पाएं कि "हिन्दू गद्दार हैं, और इन्होने सौ साल मुगलों की गुलामी की।"  

   मुग़ल भारत में सातवीं शताब्दी में आए और खालसा पंथ बना 1699 में, जब मुग़ल वंश ढलान पर था और औरंगजेब के बाद व्यावहारिक रूप से मुग़ल वंश का पतन हो गया था। सातवीं शताब्दी से लेकर सत्रहवीं शताब्दी तक हिन्दुओं का एक स्वर्णिम इतिहास है, मुगलों के सामने संघर्ष का इतिहास है, यहाँ तक कि रानियों का भी इतिहास है। 

तो यह प्रश्न सहज ही उत्पन्न होगा कि जब खालसा पंथ बना ही 1699 में और कमज़ोर मुग़ल वंश के सामने, तो इतने वृहद सनातन की रक्षा जैसा हास्यास्पद प्रश्न कहाँ से उठा? हाँ, यह अस्तित्व की लड़ाई थी, और इसे सभी ने मिलकर लड़ा था।

   इतिहास का कोई भी विद्यार्थी यह सहज बता सकता है कि हिन्दू कभी भी गुलाम नहीं रहा। यह नैरेटिव जानबूझकर हिन्दू और सिखों में फूट डालने के लिए गढ़ा गया था। सिखों को किस प्रकार ब्रिटिश शासनकाल में हिन्दुओं से अलग करने के लिए कदम उठाए गए, और किस प्रकार सिख इतिहास को इस प्रकार लिखवाया गया कि वह हिन्दुओं से अलग दिखें, उसकी चर्चा हम अगले लेख में करेंगे! 

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   एक बार फिर से कहना चाहूंगी कि लेखों का उद्देश्य केवल और केवल उस नैरेटिव पर बात करना है जो बार-बार हिन्दुओं को ही नीचा दिखाता है, जबकि सनातन की उदारता देखिये कि वह बस मुस्करा कर रह जाता है, पर हर गलत नैरेटिव की एक उम्र होती है।


सोनाली मिश्रा 


स्वतंत्र अनुवादक एवं कहानीकार हैं। उनका एक कहानी संग्रह डेसडीमोना मरती नहीं काफी चर्चित रहा है। उन्होंने पूर्व राष्ट्रपति कलाम पर लिखी गयी पुस्तक द पीपल्स प्रेसिडेंट का हिंदी अनुवाद किया है। साथ ही साथ वे कविताओं के अनुवाद पर भी काम कर रही हैं। सोनाली मिश्रा विभिन्न वेबसाइट्स एवं समाचार पत्रों के लिए स्त्री विषयक समस्याओं पर भी विभिन्न लेख लिखती हैं। आपने आगरा विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में परास्नातक किया है और इस समय इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय से कविता के अनुवाद पर शोध कर रही हैं। सोनाली की कहानियाँ दैनिक जागरण, जनसत्ता, कथादेश, परिकथा, निकट आदि पत्रपत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं।



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