नेहरू का यार! 1962 का गद्दार: नेहरू ने एक नशेड़ी को रक्षामंत्री बनाकर चिन से देश को हरा दिया!

नेहरू का यार! 1962 का गद्दार: नेहरू ने एक नशेड़ी को रक्षामंत्री बनाकर चिन से देश को हरा दिया! नेहरू की काली करतूत जिसे छिपा दिया गया | Nehru and Menan: The Villains of 1962 

पंडित जवाहरलाल नेहरु! यह नाम सुनते ही देश के कई सेक्युलर, लिबरल और तथाकथित बुद्धिजीवी घबड़ाने लगते हैं। उन्हें डर सताने लगता है कि अब परमपिता चाचा नेहरु को वो कौन सा राज है, जो खुलने वाला है। और जब कोई राज खुलता है या सामने आता है तो नेहरु के भक्त अपना पैतरा बदल देते हैं। आरोप लगाने लगते हैं कि हर बात में नेहरु का नाम क्यों घसीटा जाता है?

    मैं इन सेकुलर लोगों की परेशानियों और दर्द को समझ सकता हूँ। लेकिन आज चीन की सरहद पर जो कुछ हो रहा है, उसकी चर्चा पंडित जवाहरलाल नेहरू का नाम लिए बिना पूर्ण हो ही नही सकती है। चीन के साथ भारत की समस्या के लिए अगर कोई एक व्यक्ति जिम्मेदार है, तो वह है पंडित जवाहरलाल नेहरू। भारत पर चीनी आक्रमण के इतिहास में "नेहरू के हिमालयन ब्लंडर" के नाम से दर्ज किया गया है। हिमालयन ब्लंडर यानी हिमालय पर्वत के आकार की भूल। 

   सच में चीन पर नेहरू की भूल इतनी बड़ी है कि इस पर 5000 पन्ने लिखे जा सकते हैं और हजारों घंटों का वीडियो बनाया जा सकता है। इसलिए इस अध्याय में आज एक ऐसे खलनायक के बारे में बताया जाएगा, जो था तो नेहरू का यार, लेकिन उसने देश का किया बंटाधार। 


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   नेहरू के इस परम प्रिय मित्र का नाम था 'वीके कृष्ण मैनन'। ये 1962 के युद्ध के समय भारत के रक्षामंत्री थे। यह आप सबको पता ही होगा कि 1962 के युद्ध में भारत की रक्षा करने के बजाय भारत की करारी हार में अपनी भूमिका निभाई। उस दौर के हर जानकार का कहना था कि वी.के. मेनन रक्षामंत्री बनने के लायक ही नहीं थे। और अगर वह रक्षामंत्री बन भी गए थे तो उन्हें वर्ष- दो वर्ष में ही हटा देना चाहिए था। 

नेहरू और मेनन की यारी, देश पर पड़ी भारी

   ऐसे में सवाल उठता है कि वह कौन था, जिसने निकम्मे रक्षामंत्री की रक्षा की? वो नाम है पंडित जवाहरलाल नेहरु। नेहरु को अपने दोस्त वी.के. मेनन से इतनी मोहब्बत थी कि वह उनकी हर बड़ी गलती को नजर अंदाज कर देते थे। नेहरू और मेनन की यारी देश पर कैसे पड़ी भारी? आप आगे पढ़ेंगे! अपने आपने अक्सर सुना या देखा ही होगा कि नेहरू से संबंधित किसी भी कांड को सुनकर सेक्युलर गैंग उस पर सवाल उठाने लगता है। इस बार कोई सवाल न उठे, इसलिए मैं जानबूझकर अपनी बात, उन पुस्तकों के जरिए कहूंगा जिन्हें नेहरू के समर्थकों ने लिखा है। इन लेखकों के ऊपर कोई भी सेकुलर सवाल नहीं उठा सकता है। 

नेहरू का यार! 1962 का गद्दार: नेहरू ने एक नशेड़ी को रक्षामंत्री बनाकर चिन से देश को हरा दिया! नेहरू की काली करतूत जिसे छिपा दिया गया | Nehru and Menan: The Villains of 1962

नेहरू और मेनन के नापाक दोस्ती की कहानी- 

   1930 के दशक में नेहरू और मेनन की लंदन में मुलाकात हुई। मेनन कट्टर वामपंथी थे और नेहरू का झुकाव भी वामपंथ की ओर था। इसलिए दोनों के बीच कामरेड वाली दोस्ती हो गई। नेहरू के लिखे पुस्तको को मेनन लंदन में छपवाते थे। यहां तक कि नेहरू की पुस्तक 'द यूनिटी ऑफ इंडिया' की प्रस्तावना भी वी.के. मेनन ने ही लिखी थी। नेहरू को पुस्तकों से मिलने वाली रॉयल्टी का सारा हिसाब किताब मेनन ही देखते थे। नेहरू ने भी मेनन के सारे एहसान चुकाने में देर नहीं की। देश जब आजाद हो गया तो नेहरु ने मेनन को ब्रिटेन में भारत का पहला हाई कमिश्नर यानी उच्चायुक्त बना दिया। 

    उस दौर के वरिष्ठ पत्रकार खुशवंत सिंह लंदन में भारतीय उच्चायोग में मेनन के साथ काम करते थे। खुशवंत सिंह अपने पुस्तक 'सच प्यार और थोड़ी सी शरारत' में मेनन के बारे में क्या खुलासे किए हैं, यह बात बताने से पहले मैं आपको बताना चाहता हूं कि- खुशवंत सिंह गांधी परिवार के बेहद करीबी माने जाते थे। यहां तक कि 1975 से लेकर 1980 तक जब सारी दुनिया इंदिरा गांधी के खिलाफ हो गई थी, तब भी खुशवंत सिंह इंदिरा गांधी के साथ खड़े रहे। इसके बदले इंदिरा गांधी ने उन्हें राज्यसभा का सांसद बनाया और पदम पुरस्कार से भी सम्मानित किया। 

मनुवाद : प्रमाण सहित भंडाफोड़

   अब पढ़िए मेनन के बारे में खुशवंत सिंह अपने पुस्तक के पेज नंबर 125 पर क्या लिखते हैं- 

     "मेनन ने एक बदमिजाज और नाकाम बैरिस्टर थे। पंडित नेहरू जब भी ब्रिटेन आते, मेनन उनकी जी हजूरी में लगे रहते। वह अपने पावर का इस्तेमाल अपनी संस्था 'इंडिया लीग' के फायदे के लिए करते थे। उन्होंने इसके लिए अपने कई अंग्रेज मित्रों से धन लिया और बदले में उन्हें भारत में हथियार बेचने के ठेके दिलवाए। वी.के. मेनन एक पैदाइशी झूठे इंसान थे। उनकी नजर हमेशा सुंदर महिलाओं पर रहती थी और भारतीय उच्चायोग में उनके कई महिलाओं से संबंध भी थे।" 

(स्रोत: खुशवंत सिंह, पत्रकार, 'सच प्यार और थोड़ी सी शरारत') 

वी.के. मेनन आजाद भारत का पहला घोटालाबाज    

    खुशवंत सिंह मेनन के चरित्र पर ऐसे ही सवाल नहीं उठाए। दरअसल मेनन ऐसा काम ही किया था। जिसे लोग जीप घोटाले के नाम से जानते है। इस घोटाले में भारतीय सेना के लिए 200 पुरानी जीपें खरीदी गई थी। जिसमें जमकर हेराफेरी हुई थी। आरोप ये भी है कि मेनन के कहने पर नेहरू ने ही पुरानी जीप खरीदने का दबाव बनाया था। इसी घोटाले को नेहरू के दामाद और इंदिरा गांधी के पति फिरोज गांधी ने सबसे पहले उठाया। इस घोटाले की जांच के लिए  अयंगर समिति का गठन भी किया गया था। लेकिन 1955 में नेहरू सरकार ने इस घोटाले की फाइल हमेशा-हमेशा के लिए बंद कर दिया। 

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2000 में से मात्र 155 जीप आई

   सोचिये! अगर उस वक्त जीप घोटाले के दोषीयो को सजा मिल जाती, तो आज देश में इस  कदर भ्रष्टाचार नहीं होता। मेनन के ऊपर भ्रष्टाचार के ही नहीं बल्कि सेक्स स्कैंडल और ड्रग्स लेने के भी संगीन आरोप थे। यह बात मैं नहीं कह रहा हूं बल्कि नेहरू के 20 वर्ष तक व्यक्तिगत सचिव रहे मथाई ने अपनी पुस्तक में लिखी है। मथाई अपने पुस्तक में लिखते हैं कि- 

    "मेनन ने खुद को ड्रग्स का गुलाम बना लिया था। वह सेक्स स्कैंडल में भी फंसा हुआ था। अक्टूबर 1951 में प्रधानमंत्री नेहरू ने मुझे लंदन जाकर मेनन के बारे में जांच करने को कहा। मैं जब वहां पहुंचा तो दफ्तर में मेनन ड्रग के ओवरडोज में था और अपनी आंख भी नहीं खोल पा रहा था। यहां तक कि नेहरू के भेजे गए जरूरी पत्र तक उसने खोल कर नहीं देखे थे। मेनन के परिचित डॉक्टर होंडू ने मुझे बताया कि- 'मेनन एक बीमार व्यक्ति है और लगभग पागल है! मुझे आश्चर्य है कि प्रधानमंत्री नेहरू ने ऐसे व्यक्ति को इतना बड़ा पद क्यों दे रखा है!'

   ….. बाद में मेनन के ब्रटिश डॉक्टर से मिला तो उसने बताया कि- 'मेनन को बिजली का शॉक दिया जाता है। उसे परसिक्यूशन मेनिया नाम की बीमारी है। मेनन एक मानसिक यौन रोगी है और बहुत ज्यादा यौन क्रिया में लिप्त है।'

    लंदन से लौटकर मैंने प्रधानमंत्री नेहरू को सब बता दिया और सुझाव दिया कि मेनन को तत्काल पद से हटा देना चाहिए। इस पर नेहरू ने कहा कि आम चुनाव के बाद (1952) जब नई सरकार का गठन होगा तो उसमें मेनन को शामिल करने का प्रस्ताव देकर वापस भारत बुला लिया जाएगा। नेहरू ने आगे कहा कि- यह मेरी गलती है! मुझे एक वर्ष पहले ही एक्शन ले लेना चाहिए था।" 

(स्रोत- एम ओ मथाई - Reminiscencesof the Nehru Age)

फिर भी नेहरू ने मेनन से दोस्ती नही तोड़ी- 

    लेकिन हकीकत में, नेहरू ने मेनन से दोस्ती नहीं तोड़ी। मथाई के मुताबिक 'मेनन लंदन में बैठकर सोवियत संघ के लिए जासूसी करता था।' जिसकी जानकारी ब्रिटेन के प्रधानमंत्री एटली को हो गई थी। और एटली ने ये बात नेहरू को बता भी दिए थे। जिसके बाद कहा जाता है कि नेहरू मेनन को लेकर बहुत शर्मिंदा हुए थे। क्योकि इस घटना से उनके गुट-निरपेक्ष आन्दोलन से बनी उनकी छवि को गहरा धक्का पहुंचा था।

   लेकिन इतना सब होने के बाद भी नेहरू ने मेनन से दोस्ती नही तोड़ी। उन्होंने अपने जिगरी यार मेनन को लंदन से उठाकर संयुक्त राष्ट्र संघ में भारतीय प्रतिनिधिमंडल का प्रमुख बना दिया। 

     नेहरू यहीं रुक जाते तब भी ठीक-ठाक था। कुछ वर्ष बाद 1957 में नेहरु ने मेनन को देश का रक्षामंत्री बना दिया। रक्षा मंत्री बनते ही मेनन अपना असली रंग दिखाने शुरु कर दिया। वह सैनिक अधिकारियों की मनचाही पोस्ट करने लगे। योग्य अफसरों की अनदेखी होने लगी और निकम्मे अफसर मौज काटने लगे। ऐसी ही एक अफसर लेफ्टिनेंट वी.एम. कौल के बारे में कहा जाता है कि यह देश के प्रधानमंत्री नेहरु के रिश्ते में भाई लगते थे। नेहरु के इस भाई कौल के चक्कर में मेनन और उस वक्त के सेना प्रमुख थींमैया के बीच जमकर जंग छिड़ गई। 

नेहरू का यार! 1962 का गद्दार: नेहरू ने एक नशेड़ी को रक्षामंत्री बनाकर चिन से देश को हरा दिया! नेहरू की काली करतूत जिसे छिपा दिया गया | Nehru and Menan: The Villains of 1962

    इस पूरे किस्से को कम्युनिस्ट इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने अपने पुस्तक 'भारत: गांधी के बाद' में विस्तार के साथ लिखा है। आपको जानकारी के लिए बता दूं कि खुद को सेकुलर और लिबरल मानने वाले रामचंद्र गुहा आरएसएस के विचार के विरोधी है। और वो खुद को कट्टर नेहरूवादी मानते हैं। 

    आइए देखते हैं कि वो अपने पुस्तक के पेज नंबर 384 पर मेनन और जनरल थिमैय्या के विवाद पर क्या लिखते हैं- 

   "अगस्त 1957 में जनरल थिमैय्या और मेनन लेफ्टिनेंट जनरल वी.एम. कौल की पोस्टिंग के मुद्दे पर उलझ पड़े। कौल को 12 अधिकारियों के ऊपर तबज्जो देकर पोस्टिंग की जा रही थी। मेनन कौल से बहुत प्रभावित थे। कौल प्रधानमंत्री नेहरू को भी जानता था, और वो इस बात का दिखावा भरपूर करता था। वही जनरल थिमैय्या को लगता था कि कौल को युद्ध का कोई अनुभव नही है। उन्होंने अपने कैरियर के बड़ा हिस्सा आर्मी सर्विस कोर में ही बिताया था। लेकिन जब रक्षामंत्री मेनन ने कौल को प्रमोशन देकर 'चीफ ऑफ जनरल स्टाफ' बना दिया तो जनरल थिमैय्या ने 31 अगस्त 1959 को प्रधानमन्त्री नेहरू को अपने इस्तीफे की जानकारी दे दी।" 

    हालांकि बाद में नेहरू के मनाने पर जनरल थिमैय्या ने अपना इस्तिफा वापस ले लिया। लेकिन उन्होंने जो लेफ्टिनेंट जनरल वी.एम. कौल के बारे में कहा था, वो 3 वर्ष बाद ही सच साबित हुआ। 

     कहा जाता है कि जब 1962 में चीन ने भारत पर हमला किया तो उसके ठीक 2 दिन पहले लेफ्टिनेंट जनरल वी.एम. कौल ने हार्ट अटैक का नाटक किया और सरहद पर सेना को अकेला छोड़कर दिल्ली आ गए। जिसके वजह से 5 दिन के अंदर ही अरुणाचल प्रदेश के तमांग पर चीनी सेना का कब्जा हो गया और युद्ध के बाद कौल से इस्तिफा ले लिया गया।

अब मेनन पर आते हैं- 

     1959 के बाद चीनी सेना की घुसपैठ लगातार बढ़ती जा रही थी। दूसरी तरफ भारतीय सेना के हालात भी बेहद खराब थी। सेना के पास पहले विश्वयुद्ध के जमाने के हथियार। सेना का मनोबल पूरी तरह से गिरा हुआ था। लेकिन रक्षा मंत्री मेनन का ध्यान सेना के अंदर सिर्फ राजनीति करना और सोवियत संघ जैसे वामपंथी देशों से अपने संबंध सुधारने पर ही उनका पूरा जोर रहता था। 

अजमेर सेक्स स्कैंडल - 92

    लेकिन 1962 के युद्ध में सोवियत संघ की दोस्ती बिल्कुल कम नहीं आई। युद्ध हुआ तो सोवियत संघ ने साफ-साफ कह दिया की 'भारत हमारा दोस्त है, लेकिन चीन हमारा भाई है'। यहां तक कि सोवियत संघ ने युद्ध के दौरान भारत को हथियारों की सप्लाई भी रोक दी थी। 

    ऐसा नहीं है कि मेनन के पाप 1962 के युद्ध में ही सामने आए, बल्कि 1960 के आसपास पूरा देश मेनन के खिलाफ हो गया था। कांग्रेस के अंदर भी लोग मेनन का विरोध कर रहे थे। रामचंद्र गुहा अपने पुस्तक के पेज नम्बर 386 पर लिखते है कि- 

    "कांग्रेस की कई नेता रक्षामंत्री मेनन के इस्तीफा की मांग कर रहे थे। गृहमंत्री गोविंद बल्लभ पंत ने भी नेहरु को सलाह दी कि अगर वो मेनन को रक्षामंत्री के पद से नहीं हटा सकते हैं, तो कम से कम उनका विभाग ही बदल दे। वहीं वरिष्ठ पत्रकार और सांसद बी. शिवराम ने भी नेहरू को पत्र लिखा कि- 'मेनन को मंत्रिमंडल में बनाए रखने की आपकी (नेहरु) जिद से मैं बेहद आहत हूँ। भारत कम्युनिस्ट देश चीन से गंभीर खतरा झेल रहा है और जैसा कि आप (नेहरु) जानते हैं कि मेनन खुद कम्युनिस्ट है। मैं जानता हूं कि मेनन को हटाने का फैसला लेना आपके (नेहरु) लिए आसान नहीं होगा! लेकिन इस वक्त देश के सामने आपातकालीन परिस्थिति है।' ….लेकिन नेहरू अपने जिद पर अड़े रहे और मेनन का बचाव करते रहे।" 

    मेनन को बचाने के लिए नेहरु हर हद पार कर रहे थे। उन्हें न तो देश की सरहद की चिंता थी, ना तो अपने उन पुराने साथियों की चिंता थी जिनके बदौलत वो यहां तक पहुंचे थे। 

    इन्हीं में से एक थे महान स्वतंत्रता सेनानी आचार्य जीबी कृपलानी। ये भी सबको पता है कि जब इस देश का प्रधानमंत्री चुनने का फैसला हो रहा था, तो सरदार पटेल देश की पहली पसंद थे। लेकिन उन्होंने नेहरु के पक्ष में अपना नाम वापस ले लिया था। लेकिन ये बात बहुत कम लोग जानते हैं कि सरदार पटेल के बाद चुनाव में दूसरी पसंद आचार्य कृपलानी ही बने थे। लेकिन उन्होंने भी नेहरु के पक्ष में अपना नाम वापस ले लिया। 

     लेकिन नेहरु के एहसान फरामोसी देखिए! कि मेनन को बचाने के लिए उन्होंने कृपलानी का राजनीतिक कैरियर ही बर्बाद कर दिया। चीन हमले से करीब 11 महीने पहले 11 अप्रैल 1961 को आचार्य कृपलानी ने संसद में मेनन के खिलाफ एक ऐतिहासिक भाषण दिया। जिसमें उन्होंने चीन के घुसपैठ को लेकर मेनन और नेहरु को दोषी ठहराया और उनको जमकर निशाने पर लिए। और उन्होंने कांग्रेस के सांसदों से कहा कि 'जिस तरह से हम लोग आजादी की लडाई में अंग्रेजो के बंदूकों से नहीं डरे थे, वैसे ही आज देश की भलाई के लिए हमें इस सरकार के सामने आना चाहिए।'

    कृपलानी लगातार मेनन को हटाने की मुहिम से लड रहे थे। लेकिन तभी आम चुनाव की घोषणा हो गई। गांधीवादी कृपलानी ने अपने बिहार के सुरक्षित समझे जाने वाली सीट सीतामढ़ी सीट छोड़कर मुंबई से रक्षामंत्री मेनन के खिलाफ चुनाव लड़ने का एलान कर दिया था। कृपलानी को लग रहा था कि वह मेनन को चुनाव में हराकर देश को चीन के संकट से बचा लेंगे। लेकिन प्रधानमंत्री नेहरू तो मेनन को बचाने के लिए पहले ही प्लान बना चुके थे। 

     चुनाव से ठीक 2 महीने पहले, 18 दिसंबर 1961 को भारत की सेना धड़धड़ाती हुई गोआ में घुस गई। महज 48 घंटे में भारत की सेना ने पुर्तगाल की गुलामी से गोवा को आजाद करा दिया। अचानक हुए इस हमले से सब हैरान में आ गए। क्योकि 1947 के बाद से ही गोवा को आजाद करने की मांग उठती रही है। लेकिन नेहरू हमेशा इसकी अनदेखी करते रहते थे। फिर ऐसा क्या हुआ कि 18 दिसम्बर 1961 को नेहरू ने गोवा की इतनी चिंता हुई? 

   दरअसल नेहरू गोवा में मिलिट्री एक्शन लेकर अपने रक्षामंत्री मेनन के लिए चुनावी लाभ लेना चाहते थे। चूंकि कोई भी नेहरू भक्त मेरी इस बात को नही मानेगा, इसलिए एक बार फिर अपनी बात साबित करने के लिए नेहरूवादी इतिहासकार रामचंद्र गुहा की पुस्तक "भारत: गांधी के बाद" का सहारा लूंगा। इस पुस्तक के पृष्ठ 407 पर लिखते है :-

    "गोवा के ऑपरेशन विजय को लेकर कई सवाल खड़े किए गए। लोगों ने सवाल उठाया कि ऐसा दिसंबर 1960 या फिर दिसंबर 1962 में क्यों नहीं किया गया? हालांकि गोवा को आजाद करने की मांग पुरानी थी! लेकिन यह शंका होने लगी थी कि चुनाव की वजह से हमला किया गया है, खासकर प्रधानमंत्री के नजदीकी मेनन का चुनाव देखते हए। जब सेना गोवा की तरफ रवाना हुई तो रक्षामंत्री मेनन ने उसका सीमा पर मुआयना किया। अमेरिकी अखबार न्यूयार्क टाइम्स ने भी लिखा है कि:- 'रक्षामंत्री मेनन दो-दो अभियान संचालित कर रहे थे। एक गोवा के अभियान, दूसरा 1962 में होने वाले आम चुनाव का अभियान।'

स्रोत- भारत: गांधी के बाद, रामचंद्र गुहा, इतिहासकार 

   गोवा की घटना से पहले मेननं का मुम्बई में चुनाव हारने तय था। लेकिन नेहरू की चाल ने पूरा खेल पलट दिया। क्योकि मुम्बई में गोवा की गुलामी एक ज्वलंत मुद्दा था। गोवा में रहने वाला मराठी समुदाय हमेशा पुर्तगाल के खिलाफ बागी तेवर रखता था। और इसी वहज से पुर्तगाली अत्याचार का सबसे बड़ा शिकार भी महाराष्ट्रीय समाज होता था। यही वजह है कि पूरे महाराष्ट्र में गोवा के आजादी के समर्थन में आवाज उठती रहती थी। उधर नेहरू ने गोवा में सैनिक आपरेशन के पक्ष मे पूरे बेशर्मी के साथ भुनाया।

     चाचा नेहरू को लोकतंत्र का पुजारी कहने वाले अंधभक्त मेरे इस बात का विश्वास नही करेंगे, इसलिए एकबार फिर मैं नेहरूवादी इतिहासकार रामचंद्र गुहा के पुस्तक का सहारा ले रहा हूँ। वह पेज नंबर 408 पर लिखते है कि :-

     "प्रधानमंत्री नेहरू ने मेनन को पेश दे रहे थे। सांगली, पूना, बड़ौदा में उन्होंने कहा कि 'मेनन की हार, उनकी (नेहरू की समजवादी और गुट निर्पेक्षतावादी) नीतियों की हार होगी।' मेनन को अपने आका के समर्थन से काफी मदद मिली। गोवा के आजादी से भी मेनन को बहुत फायदा हुआ। क्योंकि उनके निर्वाचन क्षेत्र मुम्बई के लोग इससे खुश हुए थे।" 

(स्रोत- रामचंद्र गुहा, भारत: गांधी के बाद, पृष्ट- 408)

चुनाव जीतने के लिए फिल्मस्टार 

      उन चुनाव में नेहरू ने मेनन को जिताने के लिए एक और घिनौनी चाल चली। उन्होंने इस बार मोहरा बनाया उस समय के सुपरस्टार दिलीप कुमार को। उन्होंने मेनन के पक्ष में दिलीप कुमार से कहा कि वो दो चुनावी रैलियां करें। नेहरू के चमचे मुझ पर सवाल उठाए, उसके पहले मैं उन्हें बता देना चाहता हूं कि यह बात मैं अपने मन से नहीं कह रहा हूं, बल्कि खुद दिलीप कुमार ने अपनी आत्मकथा "वजूद और परछाई" में इस चुनाव के बारे में विस्तार से लिखा है। दिलीप कुमार ने लिखा है कि:- 

नेहरू का यार! 1962 का गद्दार: नेहरू ने एक नशेड़ी को रक्षामंत्री बनाकर चिन से देश को हरा दिया! नेहरू की काली करतूत जिसे छिपा दिया गया | Nehru and Menan: The Villains of 1962

     "पंडित जवाहरलाल नेहरू ने मुझे खुद फोन करके कहा था कि क्या मैं समय निकालकर मुंबई के कांग्रेस ऑफिस में जाकर भी वीके मेनन से मिल सकता हूं। मैंने पंडित जी की बात का सम्मान किया और जैसा उन्होंने आदेश दिया था मैं मेनन से मिलने जुहू के कांग्रेस ऑफिस पहुंच गया। मेनन ने मुझसे कहा कि मुकाबला बड़ा है, वह चाहते हैं कि मैं उनके लिए रैली करू। जब मैं पहली रैली करने पहुंचा तो भीड़ की खुशी और जोश भरी चीख पुकार और साफ सुनाई देने लगी। मैंने गहरी सांस ली और 10 मिनट तक बोला। जब मेरा भाषण खत्म हुआ तो तालियों की आवाज बहरा कर देने वाली थी। इस तरह मैंने मेनन के लिए चुनाव प्रचार करते हुए कई भाषण दिए। बाद में कांग्रेस के लिए चुनाव प्रचार करना मेरा एक नियमित काम बन गया। क्योंकि कृष्ण मेनन चुनाव जीत गए थे।" 

( स्रोत- 'वजूद और परछाई' -दिलीप कुमार)

      नेहरू ने नायक दिलीप कुमार को मोहरा बनाकर खलनायक मेनन के लिए सियासत के संत आचार्य कृपलानी की बलि ले ली। इस चुनाव में नेहरू ने एक और नायक बलराज साहनी का इस्तेमाल करके सियासत के असली हीरो अटल बिहारी वाजपेई की भी बलि ली। उस चुनाव में अटल बिहारी बाजपेई भी नेहरू की चिंगी थी। खासकर मेनन के खिलाफ जबरदस्त हमला बोल रहे बलरामपुर से अटल जी को चुनाव में हराने के लिए नेहरू ने बलराज साहनी को वहां चुनाव प्रचार के लिए भेज दिया, वह भी पूरे 2 दिन के लिए। नतीजा यह हुआ कि बलराज साहनी की वजह से अटल बिहारी बस सिर्फ और सिर्फ 2052 वोटों से हार गए। लेकिन इस हार का छोटा सा अंतर आगे जाकर भारतीय सियासत का रिवाज बन गया। 

   यह आप लोगों को पता होना चाहिए कि दिलीप कुमार हो या बलराज साहनी, चुनाव में फिल्मी सितारों का सबसे पहला इस्तेमाल लोकतंत्र के रक्षक चाचा नेहरू ने किया था। 

नेहरू की बेशर्मी

   नेहरू ने साम दाम दंड भेद का इस्तेमाल करके मेनन को तो चुनाव जितवा दिया, लेकिन इसके साथ ही 1962 के युद्ध में भारत के हार की तकदीर भी नेहरू ने लिख दी। जितना दिमाग नेहरू ने मेनन को जिताने में लगाया था, काश उसका आधा भी चाइना पॉलिसी में लगा लिया होता तो आज हमारे सरहदों पर चीन के सैनिक खून की होली नहीं खेल रहे होते।

    आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि 1962 के युद्ध के हार के बाद भी नेहरू का मेनन के प्रति प्यार कम नहीं हुआ। नेहरू हार के बाद भी मेनन को बचाने के लिए कोशिश करते रहे। यहां तक कि इसके लिए उन्होंने तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल पीएन थापर को भी बलि का बकरा बना दिया। यह बात मैं नहीं कह रहा हूं, बल्कि यह मानना है देश के प्रसिद्ध पत्रकार कुलदीप नैयर का। नेहरू के अंध भक्तों को बताना चाहता हूं कि कुलदीप नैयर बेहद सेकुलर और लिबरल माने जाते हैं। वे नेहरू को अपना हीरो मानते थे और इस हीरो के बारे में अपनी आत्मकथा "एक जिंदगी काफी नहीं" कि पेज नंबर 150 पर लिखा है कि:-

    "जब बोमडिला की चौकियां भी हाथ से निकल गई तो जनरल थापर नेहरू से मिलने गए। उन्होंने भारतीय सेना की महान मर्यादा का पालन करते हुए नेहरू के सामने अपने इस्तीफे की पेशकश की। उस वक्त नेहरू के चेहरे पर बहुत दिनों बाद मुस्कुराहट आई। उन्होंने गर्मजोशी से जनरल थापर का हाथ थामते हुए कहा कि थैंक यू! लेकिन इसमें तुम्हारी कोई गलती नहीं है। …अगली सुबह वह नेहरू से फिर मिले तो नेहरू ने कहा कि जनरल याद है ना! कल रात तुमने मुझे क्या कहा था! मुझे तुम्हारे इस्तीफा राइटिंग में चाहिए। जनरल थापर ने अपना लिखित इस्तीफा नेहरू को सौंप दिया। मैंने नेहरू को लोकसभा में जनरल थापर का इस्तीफा लहराते हुए देखा। इससे नेहरू पर भड़के हुए सांसदों का गुस्सा शांत करने में थोड़ी मदद मिली। नेहरू का ख्याल था कि जनरल थापर के इस्तीफे के बाद रक्षा मंत्री में मेनन संसद का निशाना बनने से बच जाएंगे। कुछ हद तक यही हुआ और नेहरू ने मेनन को रक्षा मंत्रालय से रक्षा उत्पादन मंत्रालय में ट्रांसफर कर दिया।" 

(स्रोत- "एक जिंदगी काफी नही", कुलदीप नैयर, पृष्ट- 150)

नेहरू और मेनन की दोस्ती कांग्रेसियो के लिए पहेली

   नेहरू और मेनन का ये दोस्ती हर किसी के समझ से परे था। यहां तक कि कांग्रेस के पढ़े-लिखे नेता भी इस इसे आज तक समझने की कोशिश कर रहे हैं। मनमोहन सरकार में विदेश मंत्री रहे और गांधी परिवार के बेहद खास लक्ष्मण सिंह ने अपनी आत्मकथा "One Life is Not Enough" (वन लाइफ इज नॉट इनफ) में नेहरू के चाइना पालिसी को बिना किसी विचार के नीति यानी बिना विचार के हीन बताया है। कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता जयराम रमेश ने हाल ही में मेनन पर 725 पेज की पुस्तक लिखी है। जिसका नाम है "A Chequered Brilliance" (ए चेकर्ड ब्रिलियंस)। इस पुस्तक के मुताबिक जब इंदिरा गांधी और फिरोज गांधी ने शादी का फैसला किया तो नेहरू ने मेनन को एक व्यक्तिगत पत्र में अपना मानसिक स्थिति और मानसिक दुविधाओं का वर्णन किया। वही जयराम रमेश इस पुस्तक में लिखते हैं कि:- 

नेहरू का यार! 1962 का गद्दार: नेहरू ने एक नशेड़ी को रक्षामंत्री बनाकर चिन से देश को हरा दिया! नेहरू की काली करतूत जिसे छिपा दिया गया | Nehru and Menan: The Villains of 1962

    "जब मेनन डिप्रेशन में चले जाते थे तो वह नेहरू को पत्र लिखते थे। जिसमें वह नेहरू से शिकायत करते थे कि आप मुझे पसंद नहीं करते हैं। आप मुझे नजर अंदाज करते हैं। कई बार तो नेहरु को खुदकुशी करने की भी धमकी देते थे।" 

मेरे पिता को मेनन से बचाइए!- इंदिरा गांधी

    तो कांग्रेस के नेता जयराम रमेश के मुताबिक ये कहा जा सकता है कि नेहरू और मेनन के बीच एक बेहद करीबी रिश्ता था। लेकिन जयराम रमेश ने जो सबसे चौंकाने वाली जो बात लिखी है, वह यह है कि नेहरू और मेनन की दोस्ती से इंदिरा गांधी तक हैरान परेशान हो गई थी। यहां तक कि उन्होंने तत्कालीन राष्ट्रपति राधाकृष्णन से गुहार लगाई थी कि वह उनके पिता जवाहरलाल नेहरू को मेनन से बचा ले। 

    नेहरू भक्त, नेहरूवादी, नेहरू के चमचे और नेहरू के गुलामो को यह सब जानकर झटका लगेगा। लेकिन कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने अपनी पुस्तक 'ए चेकर्ड ब्रिलियंस' में लिखा है कि:- 

  "इंदिरा गांधी राष्ट्रपति राधाकृष्णन के पास गई और उनसे कहा कि मेरे पिता को कृष्ण मेनन से बचा लीजिए, वह मेनन का इस्तीफा स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। वे पिछले 7 दिनों से उनका इस्तीफा अपनी जेब में लिए घूम रहे हैं।" 

    भारत के प्रधानमंत्री की अनुशंसा या सिफारिश पर ही राष्ट्रपति किसी मंत्री का इस्तीफा स्वीकार करते हैं, लेकिन इतिहास में यह पहला मौका था जब राष्ट्रपति ने किसी प्रधानमंत्री (नेहरू) को उंसके मंत्री (मेनन) का इस्तीफा स्वीकार करने के लिए कहा था।" 

    सोचिए

 ★ जो व्यक्ति नशेड़ी था! 

 ★  कई महिलाओं से संबंध थे! 

 ★  जो सेक्स मनोरोगी था! 

 ★   जिस पागल को बिजली के शौक दिए जाते थे! 

 ★  जिस पर भारत का पहला घोटाला करने का आरोप था! 

 ★ लंदन में सोवियत संघ की जासूसी करके भारत को नीचा दिखा रहा था! 

 ★ संयुक्त राष्ट्र में वामपंथी देशों के लिए लॉबिंग यानी दलाली करता था! 

 ★ जिसने भारतीय सेना में भेदभाव और भाई भतीजावाद को बढ़ावा दिया था! 

 ★ जिसने भारतीय सेना को तोड़ने की कोशिश की! 

 ★ जिसकी वजह से भारत चीन का युद्ध हार गया और 

 ★ जिसकी वजह से आज भी चीन सेना सरहदों पर खून बहाते हैं। 

   वह वीके मेनन जवाहरलाल नेहरू का जिगरी दोस्त परम मित्र क्यों था? इस पर इस देश में रिसर्च होनी चाहिए। साथ ही यह भी सवाल उठना चाहिए कि दिल्ली के लुटियन इलाके में इस व्यक्ति के नाम पर एक सड़क का नाम क्यों है?

और अंत में- 

   आपसे एक बात और कहना चाहता हूं कि नेहरू के व्यक्तिगत जीवन में मेरी एक रत्ती भर भी रुचि नहीं है और उनके चरित्र पर कीचड़ उछालना भी मेरा मकसद नहीं है। लेकिन नेहरू के किसी बेहद पारस्परिक संबंध से देश के हित प्रभावित हुए थे और अभी तक प्रभावित हो रहे हैं। तो यह हर भारतीय का लोकतांत्रिक अधिकार है कि वह संविधान के दायरे में रहते हुए नेहरू पर सवाल उठाए। और उसे यह सवाल उठाना भी चाहिए। क्योंकि जो अपने इतिहास की गलतियों को भूल जाता है, वह कभी भी अपने भविष्य का निर्माण नहीं कर सकता है। 


प्रखर श्रीवास्तव



1 Comments

  1. नेहरू बाबा इतने बड़े महान व्यक्ति थे??

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