संसद भवन को उड़ाकर पाकिस्तानी झंडा फहराना चाहते थे दिल्ली के मुसलमान!

संसद भवन को उड़ाकर पाकिस्तानी झंडा फहराना चाहते थे दिल्ली के मुसलमान!
भारत को तोड़कर पाकिस्तान बना लेने के बाद भी कुछ कट्टरवादी तत्व चुप नहीं बैठे। विभाजन को अभी एक महीना भी नहीं बीता था कि पाकिस्तान ने भारत के ही कुछ कट्टरवादी तत्वों की मदद से दिल्ली पर कब्जा करने का षड्यंत्र रच लिया। संयोग से इसकी भनक संघ के स्वयंसेवकों को लगी और इसकी जानकारी सरकार को दी गई। कई स्थानों पर सैनिकों से संघर्ष हुआ और उनकी योजना विफल हो गई।
   बात सितंबर, 1947 की है। उन दिनों पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर सहित भारत के अनेक स्थानों पर छल-बल से कब्जा करने का षड्यंत्र रच रहा था। उस षड्यंत्र में भारत के कुछ कट्टरवादी भी शामिल थे। एक दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं को पता चला कि दिल्ली के कुछ कट्टरवादी दिल्ली पर कब्जा करने की योजना बना रहे हैं। जब इस जानकारी की पुष्टि कर ली गई तब संघ ने इस जानकारी को सरकार को देने का विचार किया। 
   इसके बाद 6 और 7 सितंबर, 1947 की मध्यरात्रि को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा तत्कालीन गृह मंत्री सरदार पटेल को सूचना दी गई। संघ ने बताया कि 10 सितंबर को संसद भवन पर हमला करने के साथ ही सभी मंत्रियों की हत्या कर लालकिले पर पाकिस्तानी झंडा फहरा देने का षड्यंत्र रचा जा रहा है। 
   सूचना क्योंकि संघ की ओर से थी, इसलिये अविश्वास का प्रश्न नहीं था। पटेल तुरंत हरकत में आए और सेनापति आकिन लेक को बुला कर सैनिक स्थिति के बारे में पूछा।
   उस समय दिल्ली में बहुत ही कम सैनिक थे। आकिन लेक ने कहा कि आस-पास के क्षेत्रों में तैनात सैनिक टुकड़ियों को दिल्ली बुलाना भी खतरे से खाली नहीं है। कुल मिला कर आकिन लेक का तात्पर्य था कि यह इतनी जल्दी भी नहीं किया जा सकता, इसके लिये समय चाहिए। यह सारी वार्ता वायसराय माउंटबैटन के सामने ही हो रही थी, लेकिन पटेल तो पटेल ही थे। उन्होंने आकिन लेक को कहा- “विभिन्न छावनियों को संदेश भेजो, उनके पास जितनी भी टुकड़ियाँ अतिरिक्त हो सकती हैं, उन्हें तुरंत दिल्ली भेजें।” 
   आखिर ऐसा ही किया गया। उसी दिन शाम से टुकड़ियाँ आनी शुरू हो गई। अगले दिन तक पर्याप्त टुकड़ियाँ दिल्ली पहुँच चुकी थीं।
संसद भवन को उड़ाकर पाकिस्तानी झंडा फहराना चाहते थे दिल्ली के मुसलमान!
1947 में किंग्सवे का दृश्य! यहाँ उन दिनों 300000 शरणार्थी यही रहते थे।

सैनिक कार्यवाही

   सैनिक कार्यवाही आरम्भ हुई। दिल्ली के जिन-जिन स्थानों के बारे में संघ ने सूचना दी थी, उन सभी स्थानों पर एक साथ छापे मारे गये और हर जगह से बड़ी मात्रा में हथियार बरामद हुए। पहाड़गंज की मस्जिद, सब्ज़ी मंडी मस्जिद तथा मेहरौली की मस्जिद से सब से अधिक शस्त्र मिले। अनेक स्थानों पर मुसलमानों ने स्टेन गनों (STEN guns) तथा ब्रेन गनों (BREN guns) से मुकाबला किया, लेकिन सेना के सामने उनकी एक न चली। सब से कड़ा मुकाबला हुआ सब्जी मण्डी क्षेत्र में स्थित ‘काकवान बिल्डिंग’ में। इस एक बिल्डिंग पर कब्जा करने में सेना को चौबीस घण्टों से भी अधिक समय लगा।
    मेहरौली की मस्जिद से भी स्टेनगनों व ब्रेनगनों से सेना का मुकाबला किया गया। चार-पाँच घंटे के लगातार संघर्ष के बाद ही सेना उस मस्जिद पर कब्जा कर सकी।
तत्कालीन काँग्रेस अध्यक्ष आचार्य कृपलानी के अनुसार-
   “मुसलमानों ने हथियार एकत्र कर लिए थे। उनके घरों की तलाशी लेने पर बम, आग्नेयास्त्र और गोला बारूद के भण्डार मिले थे। स्टेनगन, ब्रेनगन, मोर्टार और वायरलेस ट्रांसमीटर बड़ी मात्रा में मिले। इन को गुप्त रूप से बनाने वाले कारखाने भी पकड़े गए।
   अनेक स्थानों पर घमासान लड़ाई हुई, जिसमें इन हथियारों का खुलकर प्रयोग हुआ। पुलिस में मुसलमानों की भरमार थी। इस कारण दंगे को दबाने में सरकार को काफी कठिनाई का सामना करना पड़ा। इन पुलिस वालों में से अनेक तो अपनी वर्दी व हथियार लेकर ही फरार हो गए और विद्रोहियों से मिल गए। शेष जो बचे थे, उनकी निष्ठा भी संदिग्ध थी। सरकार को अन्य प्रान्तों से पुलिस व सेना बुलानी पड़ी।” 
-(कृपलानी, गान्धी, पृष्ठ 292-293)

मुसलमान सरकारी अधिकारी थे योजनाकार

   दिल्ली पर कब्जा करने की योजना बनाने वाले कौन थे ये लोग? ये कोई सामान्य व्यक्ति नहीं थे। इन में बड़े–बड़े मुसलमान सरकारी अधिकारी थे, जिन पर भारत सरकार को बड़ा विश्वास था। इनमें उस समय के दिल्ली के बड़े पुलिस अधिकारी तथा दिल्ली विश्वविद्यालय के वरिष्ठ अधिकारी थे, जो कि मुसलमान थे।
  एक-एक पहलू को अच्छी तरह सोच-विचार करके लिख लिया गया था और वे लिखित कागज-पत्र विश्वविद्यालय के एक वरिष्ठ अधिकारी की ही कोठी में एक तिजोरी में सुरक्षित रख लिए गए थे।
   उन दिनों मुसलमान बनकर मुस्लिम अधिकारियों की गुप्तचरी करने वाले संघ के स्वयंसेवकों को इस की जानकारी मिल गई और उन्होंने संघ अधिकारियों को सूचित किया। संघ अधिकारियों ने योजना के कागजात प्राप्त करने का दायित्व एक खोसला नाम के स्वयंसेवक को सौंपा।
   खोसला ने उपयुक्त स्वयंसेवकों की एक टोली तैयार की और सभी मुसलमानी वेश में रात को विश्वविद्यालय के उस अधिकारी की कोठी पर पहुँच गए। मुस्लिम नेशनल गार्ड के कार्यकर्ता वहाँ पहरा दे रहे थे। खोसला ने उन्हें ‘वालेकुम अस्सलाम’ किया और कहा– “हम अलीगढ़ से आए हैं। अब यहाँ पहरा देने की हमारी ड्यूटी लगी है। आप लोग जाकर सो जाओ।” वे लोग चले गए।

कोठी से तिजोरी ही उठा लाए 

   खोसला के लोग कोठी से उस तिजोरी को ही निकाल कर ट्रक पर रख कर ले गए। उसमें से वे कागज निकाल कर देखे गए तो सब सन्न रह गए।
नई दिल्ली में आजकल जो संसद सदस्यों की कोठियाँ हैं, इन्हीं में से ही किसी कोठी में रात को कुछ स्वयंसेवक सरकारी अधिकारियों की बैठक बुलाई गई और दिल्ली पर कब्जे की उन कागजों में अभिलिखित योजना पर मन्थन किया गया। इसी मन्थन में से यह बात सामने आई कि यह योजना इतने बड़े और व्यापक स्तर की है कि हम संघ के स्तर पर उस को विफल नहीं कउर सकते। इसे सेना ही विफल कर सकती है। अतः इस की सूचना हमें सरदार पटेल को देनी चाहिए। 
   फलतः उस बैठक से ही दो–तीन कार्यकर्ता रात्रि को एक बजे के लगभग सीधे सरदार पटेल की कोठी पर पहुँचे तथा उन्हें जगाकर यह सारी जानकारी दी। 
पटेल बोले– “अगर यह सच न हुआ तो?” 
कार्यकर्ताओं ने उत्तर दिया– “आप हमें यहीं बिठा लीजिए तथा अपने गुप्तचर विभाग से जाँच करा लीजिए। अगर यह सच साबित न हुआ तो हमें जेल में डाल दीजिए।”  (इसके बाद सरदार हरकत में आए।)
    कल्पना करें कि यदि सरदार पटेल संघ की उक्त सूचना पर विश्वास न करते अथवा वे आकिन लेक की बातों में आ जाते तो भारत सरकार को भाग कर अपनी राजधानी लखनऊ, कलकत्ता या मुम्बई में बनानी पड़ती और परिणाम स्वरूप आज पाकिस्तान की सीमा दिल्ली तक तो जरूर ही होती।
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साभार: ”विभाजनकालीन भारत के साक्षी” (पृष्ठ संख्या 92-93)
लेखक – श्री कृष्णानन्द सागर


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