
अमेरिका और ब्रिटेन चाहते थे कि ताइवान की जगह यह परमानेंट सीट भारत को दे दी जाए। और इसकी जानकारी जब अमेरिका में भारत के तत्तकालीन राजदूत विजय लक्ष्मी पंडित को दी गई, तो इस बारे में विजय लक्ष्मी पंडित ने अपने भाई प्रधानमंत्री नेहरू को 24 अगस्त 1949 को एक पत्र लिखी।
इस पत्र का खुलासा 'लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स' (London School of Economics) के स्कॉलर डॉ एंटोन हार्डर (Dr Anton Harder) ने अपनी रिसर्च पेपर 'नॉट एट द कास्ट ऑफ चाइना'( Not at the Cost of China) में किया है। इस पत्र में विजय लक्ष्मी पंडित लिखती हैं-
"अमेरिका के विदेश मंत्रालय में यह बात चल रही है कि सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता वाली सीट राष्ट्रवादी चीन (ताइवान) से लेकर भारत को दे दी जाए। इस प्रश्न के बारे में आपके उत्तर की रिपोर्ट मैंने अभी-अभी रायटर्स (समाचार एजेंसी) में देखी है। पिछले हफ्ते महीने जॉन फास्टर डालेस और फिलिप जोसेफ से बात की थी। मैंने सुना है कि डालेस ने अमेरिकी विदेश मंत्रालय की ओर से भारत के पक्ष में जनमत बनाने के लिए कहा है। मैंने, हम लोगों (भारत) का रुख उन्हें बताया और सलाह दी कि वे (अमेरिका) इस मामले में धीमी गति से चले, क्योंकि भारत में इसका गर्मजोशी के साथ स्वागत नहीं किया जाएगा!"
सोचिए! डालेस जैसा बड़ा नेता जो 4 साल बाद अमेरिका के विदेश मंत्री बना! वह भारत को सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्यता दिलवाना चाहते थे और हमारे प्रधानमंत्री की बहन उन्हें पहले ही मना कर देती है। वह कह देती है कि "इस मामले में अमेरिका कोई भी जल्दबाजी न करें, क्योंकि एक तरह से भारत का इसमें रुचि (interested) नहीं है!"
अखिर भारत इतने बड़े मौके के लिए क्यों नहीं इंटरस्टेट था? इसकी वजह जवाहरलाल नेहरू ने अपने पत्र में बताई है। नेहरू अपने बहन को पत्र में लिखते हैं-
"तुमने लिखा है कि अमेरिका विदेश मंत्रालय सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता वाली सीट पर से चीन को हटाकर भारत को उस पर बिठाने का प्रयास कर रहा है। जहां तक हमारा प्रश्न है, हम इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं करेंगे। हमारी दृष्टि से यह एक बुरी बात होगी। क्योंकि यह चीन का साफ-साफ अपमान है, इससे चीन और हमारे संबंध भी बिगड़ जाएंगे। मैं समझता हूं कि अमेरिका इसे पसंद नहीं करेगा, लेकिन हम संयुक्त राष्ट्र संघ के और सुरक्षा परिषद में चीन की सदस्यता पर बल देते रहेंगे!"
-(Dr Anton Harder: Not at the Cost of China)
सोचिए! भारत के हाथ में इतना बड़ा मौका आ रहा था और भाई-बहन ने इसे ठुकरा दिया। शायद देशहित से ऊपर उनकी व्यक्तिगत सोच हॉबी थी।
हालांकि कांग्रेस और नेहरु के भक्त ये झूठ फैलाते हैं कि अमेरिका ने ऐसा कोई ऑफर नहीं दिया था। इसलिए जिन्हें भी शक है, उन्हें मैं बता दे देना चाहता हूं कि विजयलक्ष्मी पंडित और नेहरु के बीच लिखे गए सारे लेटर दिल्ली के “नेहरु मेमोरियल म्यूज़ियम एंड लाइब्रेरी” में रखे हुए हैं। नेहरु के गुलामों को नेहरु मेमोरियल में लेटर ढूढ़ने में समस्या ना आए, इसलिए जहां पर लेटर रखे गए हैं, उस फ़ाइल का नाम और नंबर भी बता देता हूं। उसका नाम है 'Vijay Lakshmi Pandit Letters: First Instalment' और फ़ाइल नंबर है- 59”! कोई भी जाकर उस फ़ाइल को चेक कर सकता है।
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नेहरू संयुक्त राष्ट्र में यूनाइटेड किंगडम के स्थायी प्रतिनिधि सर पियर्सन डिक्सन की बात सुनते हुए। 21 दिसंबर 1956, संयुक्त राष्ट्र, न्यूयॉर्क |
शशि थरूर ने भी बेनकाब किया
लेकिन नेहरु के चमचों को सुरक्षा परिषद वाली झूठ को खुद कांग्रेस के नेता शशि थरुर बेनकाब कर चुके हैं। और उन्हें, अगर बात पर भरोसा नहीं है तो उन्हें शशि थरुर के पुस्तक नेहरु: इंवेंशन ऑफ इंडिया (Nehru: Invention of India) पढ़ना चाहिए। जिसमे थरूर ने लिखा है कि-
"भारत को संयुक्त राष्ट्र के सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्य बनने का प्रस्ताव मिला था। लेकिन उन्होंने (नेहरू ने) चीन को दे दिया। भारतीय राजनयिकों ने संयुक्त राष्ट्र में वह फाइल देखी थी, जिस पर नेहरू के इनकार का जिक्र था। नेहरू ने संयुक्त राष्ट्र की सीट ताइवान के बाद चीन को देने की वकालत की थी।"
नटवर सिंह भी बेनकाब करते है
आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि खुद शशि थरूर संयुक्त राष्ट्र के 'अंडर सेक्रेट्री जनरल' रह चुके हैं। फिर भी अगर चाचा नेहरू के भक्तों, गुलामों और चमचों को थरूर की बातों पर भरोसा नहीं है तो उन्हें कांग्रेस के एक और बड़े नेता व पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह की आत्मकथा 'वन लाइफ इज नॉट इनफ' (One Life is not Enough) पढ़ना चाहिए। नटवर सिंह ने जवाहरलाल नेहरू, विजयलक्ष्मी पंडित, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और सोनिया गांधी से लेकर राहुल गांधी तक, सबके साथ काम किया है। नटवर सिंह की मानें तो "अमेरिका ने ही नहीं, बल्कि शक्तिशाली सोवियत संघ ने भी नेहरू को संयुक्त राष्ट्र संघ में सुरक्षा परिषद का स्थाई सदस्य बनाने का प्रस्ताव दिया था!"
नटवर सिंह अपने पुस्तक के पेज नंबर 101 पर लिखते हैं-
"जून 1955 में नेहरू जब सोवियत संघ में थे, उनकी मुलाकात दूसरे नंबर के नेता बुलगानिन से हुई। बुलगानिन ने नेहरू से कहा- 'हम आपको सुझाव देते हैं कि भारत को सुरक्षा परिषद के छठे सदस्य के रूप में प्रवेश की पहल करना चाहिए!' बुलगानिन के इस सुझाव पर नेहरू ने कहा कि शायद आपको पता होगा कि अमेरिका की तरफ से भी यह कहा गया है कि भारत सुरक्षा परिषद में चीन का स्थान ले ले। लेकिन इससे हमारे और चीन के बीच समस्या पैदा हो जाएगी। वैसे भी हम खुद को विशेष स्थानों और पदों पर बैठाने के हक में नहीं है। क्योंकि इससे कठिनाइयां हो सकती हैं और यह विवाद का विषय बन सकता है। यदि सुरक्षा परिषद में भारत को शामिल करना है तो फिर संयुक्त राज्य संघ के चार्टर में बदलाव लाना होगा। भारत को लगता है कि जब तक सुरक्षा परिषद में चीन का मामला नहीं सुलझ जाता है, तब तक हमें पहल नहीं करना चाहिए!"
नेहरू द्वारा मुख्यमंत्रियों को लिखे पत्र से खुलासा
ध्यान से पढे! सोवियत संघ से पहले नेहरु को अमेरिका भी सुरक्षा परिषद का प्रस्ताव दे चुका है। जिसका जिक्र उनकी बहन विजय लक्ष्मी पंडित ने किया था। बुलगानिन (रुस का दूसरा बड़ा नेता) से मुलाकात से डेढ़ महीने बाद, यानी दो अगस्त 1955 को नेहरु अपने मुख्यमंत्रीयों को पत्र लिखते हैं। जिसे छापा गया है 'माधव खोसला' की पुस्तक 'लेटर्स फ़ॉर ए नेशन' (A letters for a nation) में। इस पुस्तक में वो सारे पत्र हैं, जो 17 वर्ष तक अपने मुख्यमंत्रियों को लिखे थे। साथ ही यह भी बता दूं कि माधव खोसला का नाता कोलंबिया और हॉवर्ड से है। और वो सरकार विरोधी "The Print" के लिए लगातार आर्टिकल लिखते हैं। उनके पुस्तक में छापे पत्र में नेहरू लिखते हैं कि-
"अमेरिका अनौपचारिक रूप से कहा है कि चीन को संयुक्त राष्ट्र में सदस्यता लेना चाहिए, ना कि सुरक्षा परिषद में। सुरक्षा परिषद में भारत को चीन की जगह मिलनी चाहिए। जाहिर है, हम इसे स्वीकार नहीं कर सकते। चीन जैसे महान राष्ट्र का सुरक्षा परिषद में नहीं होना, उसके साथ नाइंसाफी भी होगी।"
-जवाहरलाल नेहरू
2 अगस्त 1955
नेहरू का संसद में झूठा बयान
लेकिन नेहरू संसद के अंदर बुलगानिन से मुलाकात और मुख्यमंत्रियों को लिखे पत्र से एकदम अलग हटकर बात करते हैं। 27 सितंबर 1955 को नेहरू संसद में डॉक्टर जेन पारक के सवाल के जवाब में लोकसभा में कहते हैं-
"संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थाई सदस्य बनाने के लिए औपचारिक या अनौपचारिक रूप से कोई प्रस्ताव नहीं मिला था। कुछ संदिग्ध संदर्भों का हवाला दिया जा रहा है, जिसमें कोई सच्चाई नहीं है। ऐसे में कोई सवाल नहीं उठता है कि भारत को सुरक्षा परिषद में कोई सीट दी गई और भारत ने इसे लेने से इनकार कर दिया। हमारी घोषित नीति है कि संयुक्त राष्ट्र में सदस्य बनने के लिए जो भी देश योग्य हैं, उन सब को शामिल किया जाए।"
-लोकसभा में नेहरू का बयान-
दिनांक 2 सितंबर 1955
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संसद में दिए गए बयान का पेपर कटिंग |
नेहरू के भक्त उन्हें लोकतंत्र का रक्षक कहते हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि लोकतंत्र का रक्षक, लोकतंत्र के मंदिर यानी संसद में झूठ कैसे बोल सकता है? और अगर नेहरू ने सच बोला है तो खुद को नेहरूवादी कहने वाले भारत के पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह, भारत के पूर्व विदेश राज्य मंत्री शशि थरूर ने अपनी पुस्तकों में यह बातें क्यों लिखी? नेहरू के चमचों ने नेहरू के वैचारिक विरोध करने वाले मुझ जैसे लोगों के लिए अपशब्दों का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन हकीकत में नटवर सिंह और थरूर से इस मामले में जाकर बात करना चाहिए।
जो भी हो, लेकिन इतना तो है कि अगर आज भारत के पास सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्यता होती तो अपने वीटो पावर से भारत ना केवल कश्मीर समस्या को सुलझा देता, बल्कि चीन को सबक सिखा सकता था। इसलिए मैं आप से कहता हूं कि गड़े मुर्दे उखाड़े, बार-बार उखाडे। क्योंकि इससे निकलने वाली दुर्गंध से कई चेहरे बेनकाब होते हैं। वह चेहरे हैं, जिनके कारस्तानियों को हम आज तक भुगत रहे हैं।
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