
16वीं सदी की बात है। यूरोपीय समुद्रों में मसाले, सोना और हिंदुस्थान की तलाश में घूम रहे थे। चाहे वास्को-डा-गामा हो या फिर कोलंबस! सब समुद्री मार्ग से भारत पहुँचने का मार्ग तलाश रहे थे।जब ये यूरोपीय लुटेरे या खोजक अमेरिका और केरेबियन आइलैंड पहुँचे तो उन्होंने इस स्थान को ‘वेस्ट इंडिया’ कह दिया। इसी चक्कर में ‘वेस्टइंडीज टीम’ बन गई, जबकि वेस्टइंडीज कोई देश ही नहीं है। इन लंबी समुद्री यात्राओं में सबसे बड़ी दिक्कत थी खाने की। क्या ऐसा जहाज़ में रख के चले जिससे मार्ग में भूख शांत हो सकें। और इसका हल मिला ‘केरेबियन आइलैंड’ में।
वहाँ क्या मिला? कछुए। वो भी मोटे-ताज़े, हरे, और इतने धीमे कि खुदा की कसम! भूखे यूरोपीय को सीधे “सूप” नज़र आने लगे।
🐢 सूप के लिए शुरू हुआ कछुआ-कारोबार
जैसे ही यूरोपीय जहाज़ कैरिबियन में पहुंचे, दो बातें साफ़ हो गईं:- यहाँ के लोग आराम से रहते हैं और उन्हें स्कर्वी नाम की बीमारी नहीं है। और
- ज़मीन-समंदर पर फैले हैं, हरे-भरे, मंद-मंद चलते हुए कछुए।
🏴☠️ कैरिबियाई ‘कछुआपती’ व्यापारी
कैरिबियाई व्यापारी समझ गए कि उनके पास सोने की खान नहीं, पर सूप की दुकान ज़रूर है। जल्द ही टापुओं पर कछुए बेचने वाले ठेले खुल गए:- “शेल एंड लडल” (Jamaica में)
- “द स्लो एंड डिलीशियस” (Barbados में)
- “सूप ऑफ द शेल डे” (Tortuga में – नाम ही काफी है)
यूरोपीय कप्तान बंदरगाह पर ऐसे आते जैसे Michelin Star का रिव्यू देने आए हों:
“अरे भई, सूप वाला कछुआ है क्या? महारानी ने आदेश दिया है, आज रात कछुए की बोटी परोसनी है।”
कैरिबियाई व्यापारी बहुत चतुर भी थे, उन्होंने समझ लिया कि इन अंग्रेज़, फ़्रेंच, पुर्तगाली, स्पेनिश जहाज़ियों को मूर्ख बनाना बहुत आसान है। इन्होंने इन यूरोपियन लोगों को बताना शुरू किया की कछुए का मांस खाने में मज़ेदार है और कछुए के फिन और खोल का सूप पीने से आदमी हट्टा-कट्टा और बुद्धिमान बन जाता है। बस इन लोगों ने इसी चक्कर में कैरिबियाई व्यापारी से कछुआ ख़रीदना शुरू कर दिया।
एक फ़्रांसीसी नवाब ने चखा और कहा: “ओह ला ला! ये स्वाद? ये जादू? ये अमरता!”
रसोइया बोला: “सर, इसमें थोड़ी कमी है… और ऊपर से हरा धनिया डालो, आनंद आ जाएगा!”
कछुए की डिमांड यूरोप में अत्यधिक थी। ब्रिटिश हाई सोसाइटी में कछुआ सूप पार्टी की शान होने लगी। चीनी लोग भी कछुए को अंग्रेजी स्टाइल से पकाने लगे। अमेरिका में भी कछुआ उच्च सोसाइटी की पसंद था। अब्राहम लिंकन तक इसके दीवाने थे। किंतु इसकी डिमांड इतनी थी कि कछुए धड़ाधड़ ख़त्म होने लगे, विप्लुप्त होने के कगार पे आ गए। फिर अमेरिका में सत्तर के दशक में कछुए का शिकार और खाने पे पाबंदी लगा दी गई ताकि कछुआ गायब ही ना हो जाये।
जैसे-जैसे सदी बदली, कछुए कम होते गए, और लोगों का स्वाद भी। कुछ कहते हैं कि कछुए छुप गए। कुछ कहते हैं कि उन्होंने बदला लिया। असल में शायद वो बस थोड़ा होशियार हो गए।
यदि आप सोच रहे है कि ये लेख को लिखने का क्या तात्पर्य है तो, अब वो भी समझ लीजिए।
जब लुटेरों ने मसालों और स्वर्ण की खोज में हिन्दुस्थान तक पहुँचने के मार्ग ढूँढने शुरू किये तो भोजन एक बड़ी समस्या थी। कछुआ खाना इसी समस्या का एक समाधान था। जब बाबर आदि घोड़ों पर इधर आए थे तो ये तातार, उजबेज़ी आदि गुंडे घोड़ों का मांस खाकर गुजारा करते थे, उनका लहू पी अपनी प्यास बुझाते थे। ये सब इतिहास में दर्ज है। अनेकों रिफरेन्स है।
तो यदि कोई कहें कि मुगल अपने साथ खाने पीने की सभ्यता लायें तो वो हरामज़ादगी की एक ऐसी मिसाल पैदा कर रहा है, जिसका तोड़ मिलना मुश्किल है।
सोच कर देखिए- हज़ारों मील से दूर कोई डाकू लुटेरा भारत को लूटने आयेगा तो क्या अपने साथ चाट, पकौड़ी, मुग़लिया खाने की कुकबुक बाँध कर लायेगा? उज़्बेकिस्तान में आज भी घोड़े को चाव से खाया जाता है, वहाँ जलेबी बनाने वाले हलवाई नहीं है। पहले भी नहीं थे।
याद रखिए दुर्दांत बर्बर लुटेरों का, चाहे वो मुग़ल हो अंग्रेज! कोई इरादा ना था कि हिन्दुस्थान जाकर उन्हें खाना बनाना सिखायेंगे। जो देश सदियों से छप्पन भोग अपने इष्ट देवों को चढ़ा रहा हो, उस देश को भला कौन पकवान आदि बनाना सिखाएगा!
“अरे भई, सूप वाला कछुआ है क्या? महारानी ने आदेश दिया है, आज रात कछुए की बोटी परोसनी है।”
कैरिबियाई व्यापारी बहुत चतुर भी थे, उन्होंने समझ लिया कि इन अंग्रेज़, फ़्रेंच, पुर्तगाली, स्पेनिश जहाज़ियों को मूर्ख बनाना बहुत आसान है। इन्होंने इन यूरोपियन लोगों को बताना शुरू किया की कछुए का मांस खाने में मज़ेदार है और कछुए के फिन और खोल का सूप पीने से आदमी हट्टा-कट्टा और बुद्धिमान बन जाता है। बस इन लोगों ने इसी चक्कर में कैरिबियाई व्यापारी से कछुआ ख़रीदना शुरू कर दिया।
🛳️ कछुओं की अटलांटिक यात्रा
समस्या ये थी कि कछुए खराब न हो जाएँ। उन्हें ज़िंदा ही जहाज़ पर लाद दिया जाता! कछुए लाइन में बैठे होते, जैसे हरे नारियलों की परेड हो रही हो। 16वीं सदी में यही था “इंस्टेंट नूडल”। लंदन या पेरिस पहुँचते-पहुँचते, कछुए थके हुए, डरे हुए, और सूप के लिए तैयार मिलते।🍲 कछुआ-सूप: रईसों का टॉनिक
कछुए का सूप बना शाही भोज का ताज। कहा जाता था कि इससे ताकत मिलती है, गठिया ठीक होता है, और मेहमानों पर “खुशबूदार” असर पड़ता है।एक फ़्रांसीसी नवाब ने चखा और कहा: “ओह ला ला! ये स्वाद? ये जादू? ये अमरता!”
रसोइया बोला: “सर, इसमें थोड़ी कमी है… और ऊपर से हरा धनिया डालो, आनंद आ जाएगा!”
कछुए की डिमांड यूरोप में अत्यधिक थी। ब्रिटिश हाई सोसाइटी में कछुआ सूप पार्टी की शान होने लगी। चीनी लोग भी कछुए को अंग्रेजी स्टाइल से पकाने लगे। अमेरिका में भी कछुआ उच्च सोसाइटी की पसंद था। अब्राहम लिंकन तक इसके दीवाने थे। किंतु इसकी डिमांड इतनी थी कि कछुए धड़ाधड़ ख़त्म होने लगे, विप्लुप्त होने के कगार पे आ गए। फिर अमेरिका में सत्तर के दशक में कछुए का शिकार और खाने पे पाबंदी लगा दी गई ताकि कछुआ गायब ही ना हो जाये।
जैसे-जैसे सदी बदली, कछुए कम होते गए, और लोगों का स्वाद भी। कुछ कहते हैं कि कछुए छुप गए। कुछ कहते हैं कि उन्होंने बदला लिया। असल में शायद वो बस थोड़ा होशियार हो गए।
📝 सूप की सीख
अगली बार जब आप सूप पी रहे हों, सोचिए कि एक हरे समुद्री जीव ने एक बार यूरोपीय भूख का शिकार होकर शाही सूप में जगह पाई थी। और सब कुछ बस इसलिए हुआ, क्योंकि 1500 के आसपास किसी यूरोपी ने कहा: “इस धीमे प्राणी को थोड़ा लहसुन और दो ब्रेड के साथ परोसना चाहिए!”यदि आप सोच रहे है कि ये लेख को लिखने का क्या तात्पर्य है तो, अब वो भी समझ लीजिए।
जब लुटेरों ने मसालों और स्वर्ण की खोज में हिन्दुस्थान तक पहुँचने के मार्ग ढूँढने शुरू किये तो भोजन एक बड़ी समस्या थी। कछुआ खाना इसी समस्या का एक समाधान था। जब बाबर आदि घोड़ों पर इधर आए थे तो ये तातार, उजबेज़ी आदि गुंडे घोड़ों का मांस खाकर गुजारा करते थे, उनका लहू पी अपनी प्यास बुझाते थे। ये सब इतिहास में दर्ज है। अनेकों रिफरेन्स है।
तो यदि कोई कहें कि मुगल अपने साथ खाने पीने की सभ्यता लायें तो वो हरामज़ादगी की एक ऐसी मिसाल पैदा कर रहा है, जिसका तोड़ मिलना मुश्किल है।
सोच कर देखिए- हज़ारों मील से दूर कोई डाकू लुटेरा भारत को लूटने आयेगा तो क्या अपने साथ चाट, पकौड़ी, मुग़लिया खाने की कुकबुक बाँध कर लायेगा? उज़्बेकिस्तान में आज भी घोड़े को चाव से खाया जाता है, वहाँ जलेबी बनाने वाले हलवाई नहीं है। पहले भी नहीं थे।
याद रखिए दुर्दांत बर्बर लुटेरों का, चाहे वो मुग़ल हो अंग्रेज! कोई इरादा ना था कि हिन्दुस्थान जाकर उन्हें खाना बनाना सिखायेंगे। जो देश सदियों से छप्पन भोग अपने इष्ट देवों को चढ़ा रहा हो, उस देश को भला कौन पकवान आदि बनाना सिखाएगा!
मनजी