वामपंथी झूठ धराशायी: ASI ने खोजी 4500 साल पुरानी सभ्यता

  • आज हम बात करेंगे उस झूठ की जो पिछली तीन पीढ़ियों से बार-बार बताया गया। 
  • आज हम बात करेंगे सरस्वती नदी की जिसे वामपंथी कल्पित कहते हैं। यानी कल्पनाओं की नदी और 
  • बात करेंगे उन ताजा खोजों की जिन्होंने बताया है कि वास्तव में भारतीय संस्कृति कल्पना नहीं एक ठोस इतिहास है। 

१- यह खोज इतिहास की धारा को बदलने वाली है

   भरतपुर जिले के डीग क्षेत्र में बहज गांव में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण यानी एएसआई ने 204-25 में जो खुदाई की है, उसके परिणाम सामने हैं। इस उत्खनन में 4500 वर्ष पुरानी सभ्यता के अवशेष, यज्ञकुंड, टेराकोटा मूर्तियां और ताम्र उपकरण मिलने के साथ ही 23 मीटर गहरा पैलियो चैनल यानी एक सूखा नदी मार्ग मिला है। जो संभवतः ऋग वैदिक सरस्वती नदी का ही मार्ग है। यह खोज न केवल एक नदी की पुष्टि है, बल्कि एक संपूर्ण वैदिक सभ्यता की ऐतिहासिक पुनर्स्थापना है और उस मान्यता पर मोहर है।  

२- वैदिक ग्रंथो की पुष्टि और मिथक का अंत

   यह खोज वैदिक ग्रंथों की पुष्टि करती है और जिसे मिथक बताया गया, उस झूठ का अंत करती है। ऋग्वेद में सरस्वती को नदीतमामा, अंबीतमे, देवीतमे कहा गया। यानी श्रेष्ठ, माता तुल्य और पूज्य। ऋग्वेद में 72 से अधिक बार उसका उल्लेख है। आज तक वामपंथी इतिहासकार इसे पौराणिक मिथक कहते रहे। पर इसरो, जीएसआई और ओएनजीसी जैसे वैज्ञानिक संस्थानों द्वारा उपग्रह चित्रण, जल स्रोत विश्लेषण और भूगर्भीय संरचनाओं से प्रमाणित हो चुका है कि सरस्वती केवल श्रद्धा नहीं, भौगोलिक वास्तविकताएं हैं। 

३- आर्य आक्रमण सिद्धांत पर करारा प्रहार

   यह खोज आर्य आक्रमण के सिद्धांत पर प्रहार करती है। वामपंथी इतिहास का झूठ उजागर करती है। सरस्वती तट पर 2600 से अधिक हड़प्पा से पहले के नगरों के प्रमाण मिले हैं। जबकि सिंधु नदी पर केवल 265। इसका सीधा सा अर्थ है वैदिक सभ्यता यहीं की थी, आयातित नहीं थी। 

   आर्य बाहरी आक्रांता थे? वास्तव में यह सिद्धांत अंग्रेज इतिहासकार मैक्समूलर द्वारा गढ़ा गया था। जिसे भारतीय वामपंथियों ने अपनाया और बढ़ाया। अब सरस्वती की खोज ने इस झूठ को तथ्य से रौंद दिया है। 

४- मूल निवासी बनाम आर्य नैरेटिव

    यह खोज मूल निवासी बनाम आर्य नैरेटिव की भी पोल खोलती है। सरस्वती सभ्यता का भारतीय भूगोल में मूलतः विकसित होना, यह दर्शाता है कि यहां की संस्कृति किन्हीं बाहरी आक्रांताओं की देन नहीं है। आर्य बनाम द्रविड़, मूल निवासी बनाम सभ्य, ये सारे जो विमर्श विभाजनकारी विचार हैं, यह वामपंथियों ने रोपे हैं। ताकि भारतीय समाज को टुकड़े-टुकड़े किया जा सके, खंडित किया जा सके। लेकिन यह खोज भारतीय संस्कृति की एकात्मता और स्थानीयता की पुष्टि करती है। इस खोज को वैज्ञानिक प्रमाणों की शक्ति के तौर पर देखना चाहिए। 

५- वैज्ञानिक प्रमाणों के ताकत

  एएसआई की खुदाई में Y (वाई) आकार की जल निकासी, तांबे और लोहे के उपकरण, टेराकोटा की मोहरे और यज्ञकुंड मिले हैं। इसरो की रिपोर्ट जो 2003 की है, वह बताती है कि घग्गर और हकरा जिसे मृत नदी मान लिया गया था, सूखा मार्ग माना गया था, वह वास्तव में सरस्वती का ही हिस्सा था। सीएसआईआर और जीएसआई की रिपोर्ट में ताजे भूजल स्रोत पाए गए हैं। यह ऐसे सुराग हैं जो सरस्वती के ऐतिहासिक प्रवाह से जुड़े हैं। अब यह खोज विज्ञान आधारित सांस्कृतिक पुनर्पाठ का उदाहरण है। इस खोज से धर्म और संस्कृति पर काल्पनिकता का आरोप ध्वस्त और चकनाचूर हो गया है। 

   वामपंथी भारतीय ग्रंथों को हिंदू ग्रंथों को काल्पनिक या धार्मिक मिथक मानते और बताते रहे हैं। जैसे सरस्वती को देवी मानना। परंतु सरस्वती के तट पर बसी बस्तियों, व्यापारिक मार्गों, सभ्य नगरों और यज्ञ कुंडों के प्रमाण इन धार्मिक प्रतीकों को ऐतिहासिक वास्तविकताओं में रूपांतरित कर रहे हैं। अब यह कहा जा सकता है कि धर्म और इतिहास अलग नहीं है। इतिहास को मिथक बनाने की बात गलत है। सच अब उजागर हो रहा है। यह खोज भारत की सांस्कृतिक आत्मगाथा का एक पुनर्प्रवेश है। पुनर्पुष्टि है। यानी कि सच पर मोहर लगाने का काम है।

६- धर्म और संस्कृति पर काल्पनिकता का आरोप

    सरस्वती नदी का मार्ग आदिबद्री, हरियाणा,  से निकलकर कुरुक्षेत्र, पहवा, बनावली, कालीबंगा, लोथल होते हुए अरब सागर तक जाता है। यह केवल एक नदी का भूगोल नहीं है।, भारत की सांस्कृतिक चेतना का मानचित्र है। यह वही नदी है जिसके तट पर वेदों की रचना हुई। जिसका ऋग्वेद में आपको बार-बार उल्लेख मिलता है। धर्म, नीति और विज्ञान का जन्म इसी सरस्वती के किनारे हुआ। यह खोज भारत की आत्मकथा को मिटाने की कोशिशों को इतिहास की अदालत में कटघरे में खड़ा करती है। 

७- औपनिवेशिक और वामपंथी दृष्टिकोण का खंडन

    इस खोज ने औपनिवेशिक और वामपंथी दृष्टिकोण का खंडन किया है। ब्रिटिश इतिहासकारों ने भारत को सभ्यताविहीन कहने की कोशिश की थी। वामपंथियों ने इसे पुराणों की भ्रांति बताया था। सरस्वती जैसे प्रमाण बताते हैं कि भारत में योजनाबद्ध नगर, जल सिंचाई प्रणालियां, व्यापारिक मार्ग और स्थापत्य कला हजारों वर्ष पहले से विद्यमान थी। अंग्रेज जो समझते थे कि सभ्यता की चेतना उनके साथ-साथ आई। यह उन्हें आईना दिखाने वाली खोज है। 

    डॉ. बीबी लाल, डॉ. आर एस बिष्ट और डॉ. श्री हरिविष्णु वाकनकर जैसे पुरातत्वविदों के कार्य इसका पुख्ता सबूत हैं। 

८- शिक्षा और पाठ्यक्रम में पुनर्लेखन की जरूरत 

   यह खोज शिक्षा और पाठ्यक्रम में पुनर्लेखन की जरूरत यानी सुधार की गुंजाइश कहां है? यह बताने का काम भी करती है। ध्यान दीजिए कि एनसीईआरटी और अन्य शैक्षणिक संस्थानों में अभी भी आर्य आक्रमण, सिंधु सभ्यता और मिथिक़ीय सरस्वती जैसे दृष्टिकोण पढ़ाए जा रहे हैं। यह तब है जब हरियाणा और राजस्थान सरकारों ने अब सरस्वती को अपने पाठ्यक्रम में शामिल करना शुरू कर दिया है। यानी सच किताबों में भी आने लगा है। वह सच जिसे लंबे समय तक दबाया गया। शिक्षा का उद्देश्य इतिहास को छिपाना नहीं प्रामाणिकता से दिखाना होना चाहिए। यह खोज पाठ्यक्रम के पुनर्लेखन की पुकार है। 

९- स्वदेशी ज्ञान परंपरा की वैज्ञानिकता

    यह खोज स्वदेशी ज्ञान परंपरा की वैज्ञानिकता की भी पुष्टि करती है। वेद, पुराण, भूगोल, ज्योतिष, स्थापत्य यह सभी कुछ भारतीय परंपराओं को गैर वैज्ञानिक ठहराने की जो जिद है, इन्हें पाखंड बताने की जो कोशिश है, लंबे समय तक वामपंथियों ने इसी जिद के आधार पर शिक्षा और इतिहास को विकृत करने का काम किया है। पर सरस्वती की खोज दिखाती है कि जल संरक्षण, नगर नियोजन, व्यापारिक नेटवर्क और धार्मिक संरचनाएं किसी विदेशी ज्ञान की नकल नहीं थी,  बल्कि हमारी अपनी गहराई थी, अपनी धरोहर थी! यह एक विरासत थी। और आज यह खोज एक ग्लोबल इंडेक्स साइंस यानी भारतीय ज्ञान परंपरा पर मोहर लगाने का काम कर रही है। 

१०- खोज वसुधैव कुटुंबकम का भौगोलिक आधार

   यह खोज वसुधैव कुटुंबकम का भौगोलिक आधार भी बताती है। सरस्वती नदी केवल वैदिक नदी नहीं है। यह वह धारा है जो संपूर्ण भारत को जोड़ती थी। ऋषियों के आश्रम, शिक्षा के केंद्र, व्यापारिक नगर यह सब सरस्वती की परिधि में था। इसकी खोज वसुधैव कुटुंबकम जैसी भारतीय अवधारणाओं को, हिंदू अवधारणाओं को स्थापित करती है और बताती है कि भारत में उसकी संस्कृति जीवंत है। कुछ भी मिथक या झूठ नहीं है, जैसा की बार-बार वामपंथी इतिहासकारों द्वारा बताया गया। इस खोज ने वामपंथी वैश्विक विचारों के संकीर्ण मॉडल को, उनके अधूरेपन को उजागर कर दिया है। 

११- भारत के पुनरुत्थान की योजनाओं का खाका

    यह खोज भारत के पुनरुत्थान की योजनाओं का खाका सामने रख सकती है। नदी से राष्ट्र तक हरियाणा में सरस्वती हेरिटेज बोर्ड कार्यरत है। जलशक्ति मंत्रालय और सीएसआईआर, भूजल स्रोतों की पुन पहचान कर रहे हैं। उन्हें दोबारा से तलाश रहे हैं, देख रहे हैं, पुष्टि कर रहे हैं। तीर्थों का पुनरुद्धार हो रहा है। चैनलों की खुदाई हो रही है। जन जागरण साथ-साथ चल रहा है। यह सब एक सांस्कृतिक चेतना का सांस्कृतिक जागरण का संकेत है। सरस्वती की पुनर्प्रतिष्ठा सभ्यता की पुन स्थापना है। ऐसी स्थापना जो भारत की वर्तमान स्थितियों से इस राष्ट्र के पुनर्निर्माण से जुड़ी है।

१२- निष्कर्ष: सभ्यता मूलक स्वतंत्रता की ओर

 यह खोज भारत के ऐतिहासिक विमर्श को सभ्यता मूलक विमर्श को एक स्वतंत्र सोच की ओर ले जाती है, जो वास्तव में तथ्य आधारित है। सरस्वती की खोज केवल भूगर्भीय वैज्ञानिक या सांस्कृतिक परियोजना नहीं है। यह एक मानसिक क्रांति है, जो एक आंदोलन में बदलती हुई हम देखेंगे कुछ समय के बाद। यह भारत की आत्मा को काल्पनिक बताने वाली विचारधाराओं की हार है। ऐसी विचारधाराएं जो अब खुद खोखली और काल्पनिक सिद्ध हो रही हैं।

    आज का भारत इतिहास, श्रद्धा और विज्ञान तीनों के सहसंवाद से अपने अतीत को फिर से जीवंत कर रहा है। सरस्वती का साक्षात्कार अद्भुत है, अनूठा है। आइए सरस्वती को जाने, इतिहास को जाने, भारतीय संस्कृति को पहचाने। 


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