जन्मदिन को राष्ट्रीय एकता दिवस के रूप में
दरअसल स्वतंत्र भारत के इतिहास में ये पहली सरकार है, जो सरदार की विरासत को न सिर्फ संजोकर रखना चाहती है, बल्कि उनकी याद को सुदृढ़ करने में कोई कोर कसर नहीं रख रही। जिन सरदार पटेल की याद को पर्दे के पीछे धकेलने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी गई लंबे समय तक, उन सरदार की स्मृति को पूरी ताकत के साथ मोदी देश और दुनिया के सामने मजबूत करने में लगे हैं। और इसी कड़ी में सालभर पहले सरदार की प्रतिमा को स्टैच्यू ऑफ यूनिटी के तौर पर गुजरात के केवड़िया में सरदार सरोवर बांध के पास मूर्त रूप दिया। जिस 182 मीटर की प्रतिमा को फिलहाल दुनिया की सबसे उंची प्रतिमा होने का गौरव हासिल है। अभी इसी 31 अक्टूबर को सरदार की 144वीं जयंती के मौके को “राष्ट्रीय एकता दिवस” के तौर पर मनाते हुए मोदी ने कहा कि “सदियों पहले चाणक्य ने देश को एकीकृत किया था और आधुनिक काल में सरदार ने ये काम किया!”
मुंबई के बिड़ला हाउस में 16 दिसंबर 1950 में सुबह नौ बजकर सैंतीस मिनट पर सरदार पटेल ने आखिरी सांस ली थी। सरदार की तबीयत गांधीजी की मृत्यु के बाद से ही खराब रहने लगी थी। दो-दो बार दिल का दौरा पड़ चुका था, लेकिन खराब स्वास्थ्य के बावजूद नव स्वतंत्र देश की महत्वपूर्ण समस्याओं को सुलझाने में लगे रहे थे सरदार। इसकी वजह से उनके स्वास्थ्य पर और प्रतिकूल प्रभाव पड़ा था।
स्वास्थ्य सुधार के किये मुम्बई गए थे
सरदार को जब अपना अंत समय नजदीक आता दिख पड़ा, तो वे 12 दिसंबर को दिल्ली से मुंबई के लिए हवाई जहाज से रवाना हुए थे। मुंबई उनकी सेहत के लिए ज्यादा सही जगह मानी जाती थी। हालांकि जब सरदार दिल्ली से मुंबई रवाना हो रहे थे, उनके ज्यादातर सहयोगियों और मित्रों को ये आशंका हो चुकी थी कि सरदार से शायद दोबारा मिलना न हो। खुद सरदार भी वेलिंगटन हवाई अड्डा, जो अब सफदरजंग एयरपोर्ट के तौर पर जाना जाता है, भारतीय वायुसेना के डकोटा विमान में रवाना होते समय इतने कमजोर हो चुके थे कि उन्हें व्हीलचेयर में ही हवाई जहाज में चढ़ाना पड़ा था और साथियों से विदा लेते समय महज फीकी मुस्कान के साथ उनका अभिवादन कर पाए थे।
मुंबई पहुंचने के बाद भी सरदार की सेहत में कोई सुधार नहीं हुआ। बिड़ला हाउस में रहते हुए ही पंद्रह दिसंबर को तड़के तीन बजे के करीब उन्हें दिल का दौरा पड़ा और वे बेहोश हो गये। डॉक्टरों ने उन्हें तत्काल कोरामिन का इंजेक्शन दिया और ऑक्सिजन ट्यूब नाक से लगा दी।
सरदार के पास उनके अंतिम कुछ घंटों में बिस्तर के पास रहे लोगों को अंदाज लगने लगा कि सरदार अब ज्यादा समय तक बचेंगे नहीं। उनके सचिव वी शंकर ने जहां दिल्ली फोन कर सरदार की अत्यंत नाजुक सेहत के बारे में लोगों को जानकारी देनी शुरु की, वहीं रामेश्वरदास बिड़ला ने दो ब्राह्मणों को फटाफट बुलाया, जो सरदार के बिस्तर के बगल में बैठकर गीता का पाठ करने लगे।
भागवत गीता सुने और शहद-पानी पिये
खुद रामेश्वरदास की बहू गोपी ने सरदार के बिस्तर के बगल में गीता पाठ शुरु किया। सरदार की बिटिया मणिबेन ने अपने संस्मरण में लिखा है कि सुबह सात बजे के करीब यानी दिल का दौरा पड़ने के करीब चार घंटे बाद जैसे ही गीता पाठ खत्म हुआ, सरदार को थोड़ी देर के लिए होश आया, जिस दौरान उन्होंने पानी मांगा, मणिबेन पटेल ने उनके मुंह में शहद के साथ गंगाजल की कुछ बूंदें डाली, जिसके बारे में सरदार ने बुदबुदाकर धीरे से कहा कि ये मीठा लग रहा है। इसके बाद सरदार की सांसे एक बार फिर से तेज हो गईं, पीड़ा और बेचैनी बढ़ती गई।
आखिरकार सुबह नौ बजकर सैंतीस मिनट पर सरदार ने अंतिम सांस ली और स्वर्गलोक के लिए विदा हो गये। खास बात ये थी कि शुक्रवार को ही सरदार को देहांत हुआ, शुक्रवार को ही उनके प्रेरणा स्रोत महात्मा गांधी का भी निधन हुआ था। जिस वक्त सरदार का देहांत हुआ, उनके बिस्तर के बगल में बेटी मणिबेन के अलावा बेटे दाह्याभाई, बहू भानुमति, पोते बिपिन के साथ निजी सचिव वी शंकर भी मौजूद थे। सरदार के देहांत की खबर मिलते ही आधे घंटे के अंदर तत्कालीन बंबई पांत के मुख्यमंत्री बालासाहेब खेर और उनकी सरकार में गृह मंत्री मोरारजी देसाई भी पहुंचे।
सरदार जी के अन्त्येष्टि में कोई नही जाएगा-नेहरू
सरदार के देहांत की खबर दिल्ली भी वी. शंकर के फोन करने के साथ ही पहुंची। दिल्ली में सन्नाटा छा गया। देहांत के वक्त तक सरकार और संगठन, दोनों ही जगह नेहरू से ज्यादा सरदार के समर्थकों और चाहने वालों की भरमार थी। सबने सरदार के अंतिम संस्कार में भाग लेना चाहा। लेकिन तभी प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कुछ ऐसा आदेश अपने मंत्रियों और अधिकारियों को दिया, जो सबको अचंभे में डालने वाला था। सरदार के करीबी सहयोगी और हैदराबाद के भारत में विलय के वक्त वहां भारत सरकार के एजेंट और तत्कालीन केंद्र सरकार में मंत्री रहे कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने अपनी किताब “पिलग्रिमेज टू फ्रीडम”, Vol-2 की पृष्ठ संख्या 289 और 290 पर इस निर्देश के बारे में यूं लिखा है-
“जब सरदार का बंबई में देहांत हुआ, उस वक्त जवाहरलाल ने अपने मंत्रियों और अधिकारियों को निर्देश दिया कि वो दाह- संस्कार में शामिल होने के लिए न जाएं। मंत्रियों में मैं उस समय बंबई के पास माथेरन में था। श्री एन वी गाडगिल, श्री सत्यनारायण सिन्हा और श्री वीपी मेनन ने निर्देशों पर ध्यान न देते हुए अंतिम संस्कार में भाग लिया। जवाहरलाल ने डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद को भी कहा कि वो बंबई न जाएं, ये ऐसा विचित्र आग्रह था, जिसे राजेंद्र प्रसाद स्वीकार नहीं कर सके। दाह संस्कार में शामिल होने वाली महत्वपूर्ण शख्सियतों में डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद, राजाजी और पंत जी थे। मैं भी वहां था!”
तत्कालीन केंद्र सरकार में मंत्री रहे कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने अपनी किताब “पिलग्रिमेज टू फ्रीडम” |
तत्कालीन केंद्र सरकार में मंत्री रहे कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने अपनी किताब “पिलग्रिमेज टू फ्रीडम”, Vol-2 |
तत्कालीन केंद्र सरकार में मंत्री रहे कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने अपनी किताब “पिलग्रिमेज टू फ्रीडम”, Vol-2 |
देश के प्रथम राष्ट्रपति को देश के प्रथम गृहमंत्री और उप प्रधानमंत्री ही नहीं, बल्कि आधुनिक भारत के शिल्पी सरदार पटेल के अंतिम संस्कार में भाग नहीं लेने के लिए देश के पहले पीएम नेहरू ने मना किया था, इसका जिक्र कई और पुस्तकों में है। जैसे कि उस दौर के वरिष्ठ पत्रकार दुर्गा दास, जो नेहरू, पटेल और आजाद सबसे ही करीब थे, अपनी पुस्तक “इंडिया-फ्रॉम कर्जन टू नेहरू एंड आफ्टर” की पृष्ठ संख्या 305 पर लिखा है-
“पटेल के देहांत ने पूरे देश को शोक में डाल दिया। प्रसाद मुंबई हवाई जहाज से गये, नेहरू की आपत्ति को दरकिनार करते हुए राष्ट्रपति ने प्रधानमंत्री की सलाह को इस मामले में अपने लिए बाध्यकारी नहीं माना। नेहरू का तर्क था कि राष्ट्र के मुखिया को एक मंत्री के अंतिम संस्कार में भाग नहीं लेना चाहिए, ये एक गलत नजीर होगी। प्रसाद को लगा कि नेहरू पटेल के कद को ओछा करने की कोशिश कर रहे हैं।”
वरिष्ठ पत्रकार दुर्गा दास की पुस्तक “इंडिया-फ्रॉम कर्जन टू नेहरू एंड आफ्टर” की पृष्ठ संख्या 305 पर लिखा |
वरिष्ठ पत्रकार दुर्गा दास की पुस्तक “इंडिया-फ्रॉम कर्जन टू नेहरू एंड आफ्टर” की पृष्ठ संख्या 305 |
खुद राजेंद्र प्रसाद के पुत्र मृत्युंजय प्रसाद ने अपने पिता को याद करते हुए जो संस्मरण एक किताब “पुण्य स्मरण” में लिखे हैं, उसके पृष्ठ 300-301 पर ये अंकित है-
“सन 1950 ई. 15 दिसंबर को सरदार पटेल का स्वर्गवास बम्बई में हुआ, जहां उनका इलाज हो रहा था। उनके दाह-संस्कार में राष्ट्रपति ने उपस्थित रहना आवश्यक समझा और तुरंत बम्बई जाने को तैयार हो गये। किन्तु प्रधानमंत्री को ये ठीक नहीं जंचा। उन्होंने राष्ट्रपति से कहा कि महज किसी मंत्री के मरने पर राष्ट्रपति का दौरे पर जाना उनके पद की गरिमा को घटायेगा और इसलिए सरदार के अंतिम संस्कार के समय दिल्ली से राष्ट्रपति का बम्बई जाना गलत परंपरा को जन्म देना होगा, इसिलए आप न जाइए। किन्तु राष्ट्रपति ने उनकी यह सलाह न मानी और भारतीय संस्कृति की प्राचीन परंपरा का पालन करना ही ठीक समझा और प्रधानमंत्री के मना करने पर भी वे बम्बई गये और दाह-संस्कार के समय उपस्थित होकर न सिर्फ शोक-संतप्त परिवार को सांत्वना दी, बल्कि स्वस्थ परंपरा को चालू रखा और तीस वर्षों से भी लंबे, पुराने संबंध को स्मरण कर अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की।”
राजेंद्र प्रसाद के पुत्र मृत्युंजय प्रसाद की पुस्तक संस्मरण एक किताब “पुण्य स्मरण” |
ये थी सरदार पटेल की शख्सियत! कि जो न बन पाया संवैधानिक गणतंत्र का प्रथम नागरिक वो भी और जो बना वो भी, दोनों एक साथ शामिल हुए। जवाहरलाल नेहरू खुद भी शामिल हुए और उनके मना करने के बावजूद उनके तमाम महत्वपूर्ण मंत्री, नौकरशाह और तीनों सेनाओं के प्रमुख भी, जिनकी मौजूदगी में शाम सात बजकर पचीस मिनट पर सरदार के पुत्र दाह्याभाई ने अपने पिता को सोनापुर के श्मशानगृह में मुखाग्नि दी!
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान साथी रहे नेताओं ने सरदार को नम आंखों के साथ अंतिम विदाई दी। इस मौके पर श्रद्धांजलि देते हुए डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ने कहा कि-
“सरदार के पार्थिव शरीर को भले ही अग्नि ने अपने आगोश में समा लिया हो, लेकिन दुनिया में कोई आग ऐसी नहीं है, जो उनकी कीर्ति और लोकप्रियता को समाप्त कर सके।”
राजेंद्र बाबू के ये शब्द आज भी सार्थक हैं, सरदार की कीर्ति पताका आज भी पूरी शान से लहरा रही है, उस भारत देश के तौर पर, जिसे मौजूदा स्वरूप प्रदान किया सरदार ने और जो दुनिया में अपनी साख और शोहरत को पिछले सात दशक में लगातार बढ़ाने में सफल रहा है। बिना लाग लपेट के बोलने वाले सरदार के लिए जिंदगी का तमाशा चंद रोज का था, लेकिन इस देश के लिए उनकी शख्सियत और योगदान सदैव अक्षुण्ण, ध्रुवतारे की तरह, देश को राह दिखाने वाला।
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