महारों की मराठाओं से कोई निजी दुश्मनी नहीं थी। यह लड़ाई ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और मराठा सेना के बीच में लड़ी गई थी, जिसमें महारों ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का साथ दिया। यह जाति पहले भी फ़्राँस के भारतीय आक्रमण वाले अभियानों में भी उन्हें अपनी सैन्य सहायता दे चुकी थी।
किसी भी इतिहास की पुस्तक में स्पष्ट तौर पर मराठा सेना की हार का कोई जिक्र नहीं है। सभी स्थानों पर कप्तान स्टोंटो द्वारा स्वयं की जान बचाने का उल्लेख है, जिसे ‘डिफेन्स ऑफ़ कोरेगाँव’ के नाम से संबोधित किया गया है।
ब्रिटिश सेना की सैन्य संरचना:- ब्रिटिश पक्ष: 834+ तोप/ बंदूकें औरअन्य आधुनिक हथियार।
मराठा पक्ष: 1800 सैनिक!
ब्रिटिश सेना में सिर्फ महार ही नहीं शामिल थे, बल्कि और दूसरे जातीय/ धर्म वाले भी थे। पेशवा पक्ष में भी अन्य जाति/धर्म के सैनिक भी शामिल थे। महारों ने ब्रिटिश सेना में सिर्फ पैदल सेना के रूप में काम किया था।
1892 में, ब्रिटिश सेना में महारों की भर्ती बंद कर दी गई, जिसमें कहा गया कि "महार एक मार्शल जाति नहीं हैं, बल्कि अछूत जाति के हैं (अस्पर्श्य)हैं!"
ब्रिटिश सेना में महारों की भर्ती बंद कर दी गई, जिसमें कहा गया कि "महार एक मार्शल जाति नहीं हैं" |
1 जनवरी, 1818 को पेशवा की राजधानी पर हमले के इरादे से ब्रिटिश सेना ने सेरूर से पुणे की ओर मार्च किया। कोरेगांव में मराठों द्वारा शांतिपूर्वक उन पर रोक लगा दी गई। इस युद्ध में, ब्रिटिश सेना और मराठों- दोनों की सहभागिता हुई। अतः अंग्रेजो ने अपना पुणे मिशन रद्द कर दिया और सेरूर वापस लौट आया।
कोरेगांव में मराठों द्वारा शांतिपूर्वक उन पर रोक लगा दी गई। इस युद्ध में, ब्रिटिश सेना और मराठों- दोनों की सहभागिता हुई |
(ध्यान दें कि दोनों सेनाओं में दलित/अन्य जाति/ मुसलमान अन्य शामिल थे!)
युद्ध मे स्थिति और परिस्थिति की व्याख्या |
कैप्टन स्टॉन्टन (जिसने ब्रिटिश पक्ष का नेतृत्व किया था), उन्होंने 1 जनवरी, 1818 की रात को एक पत्र में ब्रिटिश मुख्यालय से जल्द मदद की अपील की थी। उन्होंने पत्र में लिखा-
"हम पूरी तरह से पेशवा की सेना से अलग हो गए हैं और आज रात से इतनी देर तक टिक नहीं पाएंगे। हमारे कई सैनिक और अधिकारी मारे गए। हमें जल्दी से जल्द और सेना भेजें अन्यथा वे कल तक हमें मार डालेंगे।"
कैप्टन द्वारा ब्रिटिश मुख्यालय से जल्द मदद की अपील की थी। |
मराठा सेना में 3 इकाइयाँ शामिल थीं- अरब, गोसाईं और मिश्रित पैदल सेना। हर एक इकाई में 600 सैनिक थे। ब्रिटिश पक्ष में 834 सैनिक (मिश्रित जाति)+ आधुनिक हथियार (जैसे तोप, बंदूकें वगैरह) थे। इस लड़ाई में ब्रिटिश पक्ष के 275 सैनिक या तो मारे गए, घायल हुए या लापता हो गए। मराठों की ओर से 500-600 लोग मारे गए या घायल हुए। मराठों की ओर से, अधिकांश हताहत अरब सैनिक थे।
युद्ध मे घायल और मारे गए योद्धाओं के बारे में |
ब्रिटिश सेना में भारतीय मूल के मृत कंपनी सैनिकों में 22 महार, 16 मराठा, 8 राजपूत, 2 मुस्लिम और 1-2 यहूदी शामिल थे।
इस लड़ाई में किसी भी पक्ष को निर्णायक जीत हासिल नहीं हुई थी। दरअसल लड़ाई के तुरंत बाद, माउंटस्टुअर्ट एलफिंस्टन ने इसे "पेशवा की छोटी जीत" के रूप में वर्णित किया था।
माउंटस्टुअर्ट एलफिंस्टन ने इसे "पेशवा की छोटी जीत" के रूप में वर्णित किया था |
फिर भी, ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने सैनिकों की बहादुरी की प्रशंसा की, जिन्हें संख्या में अधिक होने के बावजूद पराजित नहीं किया जा सका।
किसी भी आधिकारिक ब्रिटिश रिकॉर्ड में इस लड़ाई को "ब्रिटिश सेना की जीत" नहीं कहा गया है। यहां तक कि भीमा कोरेगांव के स्तंभ पर जो शिलालेख है, वो भी यही कहता है कि इसे "कोरेगांव की रक्षा" की स्मृति में बनाया गया था।
प्रस्तुत है! उस समय के एक सैनिक और प्रमुख ब्रिटिश इतिहासकार जेम्स ग्रांट डफ का दस्तावेजी साक्ष्य, जो कहता है कि "ब्रिटिश सेरूर में वापस चले गए!"👇
"ध्यान दें कि महारों ने ब्रिटिश सेना में काम करने से पहले पेशवा की सेना में काम किया था और बाद में इस अनुभव का फायदा उठाकर ब्रिटिश सेना में शामिल हो गए!"
इसका उल्लेख क्रिस्टोफ़ जाफ़रलॉट की किताब- "डॉ. अम्बेडकर और अस्पृश्यता: जाति का विश्लेषण और लड़ाई" में किया गया है।
पेशवाओं की सेना में भी दलित जातियों के लोग शामिल थे। इसका मतलब है कि इस लड़ाई में ब्रिटिश सेना के महारों ने, पेशवा सेना के दलितों के खिलाफ भी लड़ाई लड़ी और उन्हें भी मारा था!यह किसी भी तरह से जश्न मनाने की बात नहीं है!!
ब्रिटिश सेना के महारों ने, पेशवा सेना के दलितों के खिलाफ भी लड़ाई लड़ी |
कप्तान स्टोंटो के पीछे हटने के निर्णय के बावजूद भी ब्रिटिश इतिहासकारों ने उसकी तारीफ की है। लड़ाई के चार साल बाद ईस्ट इंडिया कंपनी ने कप्तान स्टोंटो और उसकी सेना के नाम कोरेगाँव में एक स्तंभ बनवा दिया। कुछ सालों बाद, यानी 25 जून, को कप्तान फ्रांसिस स्टोंटो मर गया और उसे समुद्र में दफना दिया गया।
👇यह पत्र ब्रिटिश सैन्य विभाग के मुख्य सचिव द्वारा डेक्कन कमिश्नर को, 18-11-1824 में लिखा गया था। इस पत्र में इस स्मारक जयस्तंभ (सैन्य स्तंभ) के निर्माण के बाद उसका प्रभारी नियुक्त करने के लिए निर्धारित शर्तें लिखी थीं।पत्र में कहा गया है:-
"स्मारक को उस मेधावी सैनिक को सौंपा जाना चाहिए, जिसने कोरेगांव की लड़ाई में भाग लिया था।"
ध्यान देने वाली और दिलचस्प बात यह है कि पत्र में कहा गया है-
"यह व्यक्ति परवारी (महार) जाति का नहीं होना चाहिए"।
पत्र में यह भी कहा गया है कि "स्मारक के बगल की जमीन और "जमादार पद", उस व्यक्ति (जिसे देखभाल की जिम्मेदारी दी गई हो), को दे दी जाये।"
इसी आदेश के तहत, जमादार खंडोजिबिन गाजोजी मालवडकर को, तत्कालीन सरकार ने इस स्मारक के देखभाल की जिम्मेदारी दी, और उनको पदक देकर सम्मानित किया। आधिकारिक तौर से जयस्तंभ का प्रभारी नियुक्त किया गया। वर्तमान में उनकी 7वीं पीढ़ी के वंशज इस स्तंभ के संरक्षक हैं।
रोहन जमादार मालवडकर (जमादार खंडोजिबिन गाजोजी की 7वीं पीढ़ी) ने भी इस विषय पर एक किताब लिखी है और इस लड़ाई से जुड़े झूठ को खारिज किया है।
1892 में ब्रिटिश सरकार ने महारों को अपनी सेना में भर्ती करना बंद कर दिया, यह कहते हुए कि "महार एक मार्शल जाति नहीं हैं बल्कि निचली जाति के untouchables (अस्पर्श्य) हैं।"
इतना ही नहीं, अंग्रेजों ने अधिकांश खानाबदोश और दलित जातियों को "आपराधिक जनजाति (Criminal Tribes)" करार दे दिया।
स्टीफ़न कोहेन (प्रसिद्ध इतिहासकार) कहते हैं कि अंग्रेजों ने भारत पर विजय प्राप्त करने के बाद दलित सैनिकों को "बेकार सैनिक" कहकर खारिज कर दिया।
जब अंग्रेजों ने अपने "आर्यन" और "मार्शल नस्ल" सिद्धांतों के कारण महारों को ब्रिटिश सेना में भर्ती करना बंद कर दिया, तो महारों ने अंग्रेजों को एक अनुरोध भेजा, जिसमें उन्होंने दावा किया कि वे क्षत्रिय थे और अंग्रेजों से उन्हें भर्ती करने का अनुरोध किया।
वास्तव में, यह एक चितपावन ब्राह्मण (महादेव गोविंद रानाडे) थे, जिन्होंने ब्रिटिश सरकार को महारों की भर्ती पर प्रतिबंध हटाने और गैर-लड़ाकू जाति के रूप में महारों के पुनर्वर्गीकरण का विरोध करने के लिए याचिका तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
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Sources: 1. A History of the Marathas by James Grant Duff
2. Gazetteer of the Bombay Presidency Vol XVIII Part III
3. History of the Madras Artillery Vol I
4. Supplement to the London Gazette (June 6 to June 9, 1818)
5. Battle of Koregaon: Lessons in Unity (OpIndia)
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