भारत से बौद्ध पंथ के पराभव में वाम-इस्लाम की भूमिका


पाठकगण अक्सर यह सोचते होंगे कि भारत में "नव-बौद्धों" को ब्राह्मणों के खिलाफ क्यों भडकाया जा रहा है? साथ ही यह प्रश्न भी उनके मन में उठते होंगे कि आखिर म्यांमार के बौद्ध, इस्लाम के खिलाफ इतने आक्रामक क्यों हो गए?, जबकि भारत में बौद्ध धर्मावलंबियों को बरगलाने में इस्लामी प्रचारक और वेटिकन सबसे आगे क्यों रहते हैं?? इन जैसे सवालों का जवाब इस लेख में संक्षिप्त रूप से दिया गया है... आगे पढ़िए।

भारतवर्ष की पुण्यभूमि में भगवान् बुद्ध का आविर्भाव तत्कालीन युगधर्म की आवश्यकता था। उस समय का सनातन धर्म थोड़ा जटिल और गूढ हो चला था, जिसका तत्वज्ञान साधारण मनुष्य की ब्रह्मविषयक जिज्ञासाओं को दूर करने में कुछ असफल सिद्ध रहा। बौद्ध पंथ की सफलता के यह सब कारण थे। किंतु मूल सवाल यह है कि एक समय जिस बौद्ध पंथ (Boudh Religion) का डंका संपूर्ण भारत वर्ष में बज रहा था, और यहाँ बहुतायत में लोग बौद्ध हो चले थे, आखिर कैसे उसका अपने मूल उद्गम स्थान से ही लोप हो गया?
वास्तव में आज भारतवर्ष में एक क्या आधा प्रतिशत (नवोदित बौद्ध मिलाकर) भी बौद्ध आबादी नही होगी। केवल थोड़ा बहुत उत्तर में लद्दाख और उत्तरपूर्व के कुछ राज्यों में ही बौद्ध पंथ को मानने वाली जनता शेष बची है। बाकी अधिकांश बौद्ध चर्च आदि के प्रलोभन द्वारा ईसाई बन चुके हैं।
वर्तमान समय से लगभग दो ढाई हजार वर्ष पूर्व संपूर्ण भारतवर्ष में बौद्ध पंथ अपना प्रभुत्व जमा चुका था। बौद्ध पंथ के सरल होने और इसे अधिकांश राजाओं का आश्रय मिलने के कारण यह तीव्रता से फैला। तीव्र विकास के कुछ फायदे होते हैं, तो नुकसान उससे भी ज्यादा होते हैं। किसी भी मत या विचार को एक निश्चित समयावधि में अपने लिए ठोस दार्शनिक स्थान बनाना होता है। किंतु बौद्ध पंथ इस देश में तो वह कार्य नहीं कर सका। किंतु दुर्भाग्य देखिए कि बौद्ध पंथ के उपासकों ने भगवान बुद्ध की शिक्षाओं को आगे बढाने के स्थान पर अपनी संपूर्ण उर्जा और सामर्थ्य को वैदिक सनातन धर्म और ब्राह्मणों के निरर्थक विरोध में लगा दिया, और यही इसके पतन का मूल कारण रहा।
यहाँ भारतवर्ष में बौद्ध पंथ जैसा सरल मार्ग, वाममार्गी तन्त्र शास्त्र और कापालिकों के षड्यंत्र का शिकार हो गया। त्याग-तपश्चर्या के जिस सुदृढ आधार पर गौतम बुद्ध ने इसे खड़ा किया था वह भाव तिरोहित हो चला था। वाममार्ग का अर्थ सुस्पष्ट है, वाम अर्थात उल्टा। वाममार्ग पंच मकार पर आधारित है अर्थात इसके अनुयायियों को इस पंचमकार सिद्धान्त पर दृढ रहना आवश्यक है। यह पंच मकार हैं मद्य (यानि शराब), माँस, मत्स्य (मीन), मुद्रा और मैथुन। इसका परिणाम यह हुआ कि बौद्ध पंथ व्यभिचार और तांत्रिक अनुष्ठानों का अड्डा बन गया। भिक्षु भिक्षुणियाँ और अन्य प्रचारक रति रमण को ही बौद्ध पंथ का अभीष्ट मान बैठे।
यही प्रदूषित बौद्ध पंथ आधारित वाममार्ग भारतवर्ष से तिब्बत में भी प्रचलित हुआ, और आज तिब्बत में बौद्ध पंथ की क्या स्थिति है, इससे सभी सुपरिचित हैं। बेचारे लाखों बौद्ध मतावलम्बियों को दलाई लामा सहित भारत के स्थान/स्थान पर निर्वासित होकर रहना पड़ रहा है। बृहत्तर भारतवर्ष के विभिन्न स्थान बौद्ध पंथ के बड़े और विकसित केन्द्र के रूप में स्थापित हुए। किंतु दुर्भाग्य से कहना पड़ रहा है कि, यह सभी स्थान बौद्ध अनुयायियों की अज्ञानता के कारण नष्ट हो गये।
यदि स्पष्ट शब्दों में बिना किसी लाग लपेट के कहें तो भारतवर्ष में सारे बौद्ध पंथ, बौद्ध संस्कृति, बौद्ध साहित्य, बौद्ध कला, बौद्ध आचार-विचार यानि समूचे बौद्ध पंथ को ही इस्लामी जिहाद (Islamic Invasion in India) की भट्टी निगल गई। इससे भी बड़ा दुर्भाग्य यह है, कि भारतवर्ष में नामशेष होने के बाद भी बौद्ध मत के अनुयायी (विशेषतः नवबौद्ध) आज भी पूर्वाग्रहग्रसित होकर ब्राह्मणों का ही विरोध करने मे अपना अधिकांश समय व्यर्थ गवाँ रहे हैं। यह लोग नहीं जानते कि ब्राह्मणों के ही कारण इस भारतवर्ष में आज बौद्ध पंथ जीवित है। यह ब्राह्मण ही थे, जिन्होंने बौद्ध पंथ को संपूर्ण पतन होने से बचाया, और उसे नव संजीवनी दी। इसे लेख में आगे बताया जाएगा।
जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है कि प्राचीन भारतवर्ष के बहुत से स्थान बौद्ध पंथ के अत्यन्त समृद्ध केन्द्र के रूप में विकसित हो चुके थे। इन स्थानों में वर्तमान अफगानिस्तान, नार्थ वैस्ट फ्रंटियर प्रोविंस, सिंध तथा बलूचिस्तान के बहुत से स्थान थे। इसके अतिरिक्त वर्तमान बंगलादेश के कुछ स्थानों और इससे लगे सीमावर्ती स्थानों पर बौद्ध पंथ अपनी उन्नति के चरमोत्कर्ष पर था। बनारस, सारनाथ, सांची, मथुरा, महाराष्ट्र, नालंदा बिहार के अलावा भी बहुत से स्थान आज भी तत्कालीन बौद्ध संस्कृति के धरोहर केन्द्र के रूप में सुविख्यात हैं। बौद्ध संस्कृति के सुविख्यात प्राचीन केंद्र के रुप में वर्तमान अफगानिस्तान तथा पाकिस्तान में आज भी जमीन की खुदाई के दौरान किसानों को बुद्ध की मृण्मूर्तियाँ (मिट्टी की मूर्तियाँ) बहुतायत से मिलती रहती हैं, जो इस बात का स्पष्ट सुबूत हैं कि विगत काल में यह स्थान बौद्ध पंथ संस्कृति को मानने वालों का रहा था।
ज्यादा समय नहीं हुआ है, जब पूरी दुनिया ने देखा कि कैसे तालिबानी कठमुल्लों ने कन्दहार (कांधार) में ऊँची चट्टानों पर बनी बची (अधिकांश हजार बारह सौ वर्ष पूर्व ही नष्ट कर दी गईं थी) खुची भगवान बुद्ध की प्राचीन मूर्तियों को कैसे स्टिंजर मिसाइलों की सहायता से नष्ट किया था। उस समय कोई भी बौद्ध देश इन मूर्तियों को जिहादियों से न बचा सका। प्राचीन समय में बौद्ध संस्कृति के अन्तर्गत आने वाले अफगानिस्तान और पाकिस्तान के कई भागों में बौद्ध मठ तथा विहार प्रचुर मात्रा में बनाये गये थे। कतिपय स्थानों में बौद्ध अधिसंख्या में थे, उन स्थानों में वहाँ के बौद्ध मतावलम्बियों का सनातनधर्मी लोंगों के प्रति व्यवहार ठीक नहीं था।
अहिंसा के नाम पर मछुआरों और पशुपालक समाज के ऊपर क्रूर अत्याचार करने के दृष्टान्त इतिहास में देखने में आते हैं। यहाँ तक कि यदि कोई व्यक्ति किसी कटोरे अथवा पात्र में भी माँस ले जाता पकड़ा जाता था तो उसके हाथ काट दिए जाते थे। यदि किसी ने पशुबलि देने का अपराध किया तो उसे मृत्यु दण्ड दे दिया जाता था, और उस पशु की स्मृति में एक बौद्ध विहार बना दिया जाता था। इस प्रकार वहाँ बौद्ध मठों और विहारों की अधिकता हो गयी, जिन्हें बुद्धप्रस्थ कहा जाने लगा था। रोचक बात है कि मुसलमानों द्वारा मूर्तिपूजकों के लिए प्रयोग किया जाने वाला बुतपरस्त या बुतपरस्ती शब्द इसी बुद्धप्रस्थ शब्द का अपभ्रंश है। इन बौद्ध की अधिकांश सनातनधर्मी प्रजा "अहिंसा परमो धर्मः" के घोषवाक्य को ही सर्वस्व मानकर क्षात्र धर्म का त्याग कर बैठी, और बौद्ध पंथ में दीक्षित हो गयी।
यद्यपि बौद्ध पंथ, सनातन धर्म की वेगवती धारा में से ही निकला एक प्रवाह था, दोनों के तत्व दर्शन में भी मौलिक साम्यता थी, फिर भी दोनों उपासना पद्धतियों के बीच परस्पर मतैक्यता के स्थान पर वर्चस्व की होड़ चलती रही। आपस के अन्तर्संबंध बिगड़ते चले गये। इधर पर्सिया, अरब, तुर्की आदि मध्य एशिया से आने वाले आक्रमणकारियों का बौद्ध लोगों ने भरपूर साथ दिया क्योंकि सनातन धर्मावलंबियों और बौद्धों के बीच परस्पर मतभिन्नता थी। हिन्दू राजाओं के विरूद्ध बौद्धों के मुसलमान आक्रमणकारियों को सहायता देने संबंधित लोक कथायें आज भी सुनने में आती हैं।
अरब से अपने नवोदित पंथ को फैलाने और उसके प्रचार प्रसार का संकल्प मन में लेकर आए मुसलमानों ने केवल हिंदू शासित स्थानों पर अपना ध्यान केंद्रित किया। उन आक्रमणकारियों ने बौद्ध भिक्षुओं को यह कहकर बरगलाया कि हम अपनी विजय के पश्चात इन स्थानों की सत्ता तुम बौद्ध लोगों को सौंप देंगे और फिर तुम जैसे चाहे वैसे राज करना। बौद्धों के मन में अपने मातृधर्म सनातनधर्म के प्रति विद्वेष अन्ततोगत्वा उनके स्वयं के बौद्ध पंथ के समूलोच्छेदन का कारण बना। एक बार हिंदू शासित प्रदेशों को जीतने के पश्चात अहिंसक बौद्धों को विजित करना कोई कठिन कार्य नहीं था, और मुसलमान तो वैसे भी दोनों में कोई भेद नहीं समझते थे। हिंदू और बौद्ध दोनों ही मूर्तिपूजक थे अतः दोनों ही उनकी दृष्टि में एक ही थे। जिन्हें वह काफिर या धिम्मी कहा करते थे। अब काफिर के लिए उन्होंने स्थानीय बुद्धप्रस्थ के नाम पर एक नये शब्द "बुतपरस्त" का प्रयोग प्रारम्भ किया।
इस्लाम के जुनूनी योद्धाओं ने वहाँ अपने पंथ जिसे वह एकमात्र सच्चा दीन कहा करते थे, की स्थापना की। बौद्धों और हिंदुओं को या तो मार डाला या बचे खुचे लोगों को सच्चे दीन में दीक्षित किया गया। सभी बौद्ध मठ, विहार या बुद्धप्रस्थ तोड़ डाले गए। अब यहाँ से हिंदुओं का एक नया नामकरण हुआ और उनको "बुतपरस्त" कहा जाने लगा। इस वीभत्स कृत्य के बाद भी काफी मात्रा में बौद्ध बच गए और वह भागकर सहायता हेतु हिंदू ब्राह्मण पुजारियों और विद्वानों से सहायता माँगने के लिए हिंदू प्रदेशों में गये। यहाँ यह सवाल उठता है कि वह आखिर हिंदू राजाओं के पास सहायता माँगने क्यों नहीं गये? इसका उत्तर है कि, चूँकि बौद्ध अपने पूर्व मूल धर्मानुयायियों हिंदुओं से द्वेष रखते थे, और उन्हें शासक वर्ग से किसी भी प्रकार की सहायता की उम्मीद नहीं थी। क्योंकि हिंदू और बौद्ध दोनों धर्मों के अन्तर्संबंध ठीक नहीं थे। बौद्ध भिक्षु जानते थे कि ब्राह्मणों के भीतर दया उदारता का भाव नैसर्गिक रूप से विद्यमान है, और उन्हें बौद्धों के ऊपर आयी इस भीषण इस्लामी विपदा के बारे में बताने पर वह अवश्य सहायता देंगे। क्योंकि शासकों के ऊपर ब्राह्मणों का गहरा प्रभाव था। ब्राह्मणों की ही दिखायी गई लोकोपकारी नीतियों पर ही शासक चलता था। ब्राह्मणों की किसी भी बात का विरोध करना राजा के लिए भी असंभव था।
अतः बौद्धों ने यह निश्चय किया कि वह ब्राह्मणों के पास सहायता हेतु जायेंगें, और वह ब्राह्मणों के पास गए। तब आपसी सहमति से यह निश्चित किया गया कि बौद्ध पंथ को संपूर्ण भारतवर्ष में अपने मूल हिंदू धर्म में ही वियोजित अर्थात विलीन कर दिया जाएगा और इसके एवज में सनातन हिंदू धर्म भगवान बुद्ध को विष्णु भगवान के एक अवतार के रूप में अपने धर्म ग्रन्थों और मंदिरों मे स्थान देगा और उनकी पूजा अर्चना भी भगवान विष्णु के ही रूप में करेगा। यहाँ से एक नूतन युग का सूत्रपात हुआ और भगवान गौतम बुद्ध को ब्राह्मणों ने अपने पुराणों में तथा अपने मंदिरों में स्थान दिया। बौद्ध पंथ पूर्णतः सनातन धर्म में विलीन कर लिया गया।
इस प्रकार दोनों पद्धतियों के मध्य चला आ रहा वैमनस्य समाप्त हुआ और बौद्ध मत को एक नवसंजीवनी ब्राह्मणों के द्वारा प्रदान की गयी। किंतु दुर्भाग्य है कि इस देश में यह वास्तविक इतिहास जानने वाले लोग बहुत कम है, और मार्क्सवादियों द्वारा विकृत किए गए इतिहास को पढने के कारण यहाँ झूठ का बोलबाला चल रहा है। ऊपर से कोढ में खाज यह कि हमारे वंचित वनवासी और दलित वर्ग के लोगों को अपनी दीर्घकालिक राजनीति साधने हेतु स्थायी वोट बैंक बनाये रखने के लिए मार्क्सवादियों ने बरगला कर झूठमूठ की मनुवाद, ब्राह्मणवाद की कल्पित कहानियाँ गढ दी हैं। एक तरह से इस वर्ग का मानसिक बधियाकरण कर दिया है, और ब्राह्मणों को अकारण खलनायक के खांचे में फिट कर दिया है। अतः इस देश के स्वर्णिम भविष्य हेतु यहाँ से मार्क्सवाद नामक आसुरी विचार को खत्म करना अत्यावश्यक है।
अतः यह यथार्थ ही है कि संसार के जिस भाग में बौद्ध पंथ का बाहुल्य हुआ वहाँ इस्लामी सत्ता बड़ी सरलता से स्थापित हो गयी। इंडोनेशिया इसका ज्वलन्त उदाहरण है। अपवादस्वरूप केवल जापान और कुछ एक बौद्ध देश और हैं, जिन्होंने इतिहास के इन रक्तरंजित पृष्ठों से सीख ली है। ज्ञातव्य है कि जापान मुस्लिमों के संदर्भ में अत्यन्त सजग और जागरूक रहता है। जापान में कोई भी मुस्लिम तीन माह से ज्यादा नहीं ठहर सकता है।
पिछले कुछ वर्षों में म्यांमार के बौद्ध धर्मावलम्बियों ने भी अंततः इस्लामी कट्टर विचार एवं जेहाद से तंग आकर बौद्ध भिक्षु असेन विराथू के नेतृत्व में रखिने प्रांत से मुस्लिमों का सफाया कर दिया है। संक्षेप में तात्पर्य यह है कि बौद्ध पंथ की अहिंसावादी नीतियाँ, इस्लाम की हिंसक मानसिकता के सामने सदैव असफल ही रही हैं। भारत में भी इस्लामी ताकतें तमाम प्रकार के झूठ रचकर बौद्धों, नव-बौद्धों एवं वंचित समाज को जानबूझकर ब्राह्मणों के खिलाफ भड़काने में लगी हुई हैं, भारत में फिलहाल वे स्वयं को बौद्धों का मित्र दर्शाने में लगे हुए हैं, जबकि उधर म्यांमार और जापान के बौद्ध इस्लाम की वास्तविकता से पूर्ण वाकिफ हो चुके हैं। उल्लेखनीय यह भी है कि जब बाबासाहब आंबेडकर का सनातन धर्म से मोहभंग हुआ तो उन्होंने भी बौद्ध पंथ ही अपनाया, न कि इस्लाम... क्योंकि वे इस्लाम की हिंसात्मक हकीकत जानते थे।

साभार: देसीसीएनएन डॉट कॉम


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