सीताराम गोयल द्वारा लिखित एक महत्वपूर्ण पुस्तक ‘History of Hindu Christian Encounters’ (A. D. 304 to1996) प्रथम बार 1986 में प्रकाशित हुई। जिसका दूसरा विस्तृत संस्करण 1996 में प्रकाशित हुआ। Koenraad Elst ने पुस्तक पढ़कर 1989 में गोयल से मुलाकात किया औए पुस्तक के बारे में अपनी प्रतिक्रिया दिया कि “इस्लाम और ईसाईयत के विरुद्ध हिदुओं का मामला अत्यंत मजबूत बनता हैं, परन्तु अभी तक इसको या तो प्रस्तुत नही किया गया, या बहुत खराब तरीके से प्रस्तुत किया गया है”।
यह पुस्तक इस मामले में अलग है, जिसमें मिशनरियों द्वारा किये गए तमाम अनैतिक कार्यो को सही ढंग से व्यक्त किया गया है। एक प्रसिद्ध गांधीवादी चिंतक जे. सी. कुमारप्पा ने कहा था, “पश्चिमी राष्ट्रों के चार हाथ है- थल सेना, नौ सेना, वायु सेना और चर्च, जिनके माध्यम से वे दुनिया भर में अपने हित साधते है”। यहां यह उल्लेख करना आवश्यक है कि कुमारप्पा स्वयं ईसाई थे। प्रस्तुत पुस्तक में गोयल ने हिन्दू ईसाई Encounters को पांच चरणों मे विभाजित किया है जो निम्न प्रकार है-
1. ईसाईयत का पहला प्रहार
सीरियाई लेखक “Zenob” के अनुसार "ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी में Euphrates (दक्षिण-पश्चिम एशिया की एक नदी जो पूर्वी तुर्की के पहाड़ों में उगती है और शतर अल-अरब जलमार्ग बनाने के लिए टिग्रीस नदी में शामिल होने के लिए सीरिया और इराक के माध्यम से 1,700 मील या 2,736 किमी तक बहती है) के ऊपरी हिस्से में, वान झील के पश्चिम Canton of Taron में दो हिन्दू मंदिर थे, 18 तथा 22 फ़ीट की मूर्तियां थी। इन मूर्तियों को 304 A.D. में ग्रेगोरी द्वारा तोड़ा गया और उसे संत की उपाधि दी गयी।
यह ज्ञात नही की रोमन साम्राज्य में हिन्दू धर्म पर ईसाईयत के आक्रमण की जानकारी भारत के लोगों को थी या नही। परन्तु सीरिया में ईसाइयों पर अपने ही मतावलंबियों द्वारा अत्याचार किया जाने लगा। और 4th century A. D. से ईरान में भी ईसाइयों को संदेह की नजर से देखा जाने लगा। जिससे बचने के लिए ये भारत और चीन भाग कर आये। इन्हें भारत मे सीरिया क्रिश्चियन कहा गया। ये भारतीय संस्कृति में रच बस गए।
परन्तु 16th शताब्दी में जब पुर्तगाली लूटेरे गोवा आये और सेंट जेवियर के नेतृत्व में हिंदुओं पर बेहिसाब अत्याचार किया गया। तो इन सीरियन क्रिश्चियन का असली स्वरूप सामने आया। ये खुल कर पुर्तगाली मिशनरी द्वारा किये गए अत्याचार का समर्थन किया।
हिन्दुओ पर गोवा में हुए इस अत्याचार का विस्तृत विवरण ब्रिटिश लेखक पॉल विलियम रॉबर्ट्स की पुस्तक “Empire of the Soul- Some Journies in India” (1997) (Download) तथा Stephen Knapp की किताब “Crime Against India” में देखा जा सकता है।
सेंट जेवियर के इतने अत्याचारो के बावजूद वांछित आत्माओं की फसल न काटी जा सकी। तब मिशनरियों ने रॉबर्ट डी नोविली के नेतृत्व में रणनीति में परिवर्तन किया। और नोविली ने स्वयं को ब्राह्मण घोषित कर धोखे से मतान्तरण करने को सोचा। इसमें त्वचा का रंग बाधा पहुंचा रहा था। जिसके लिए लोशन भी तलाशने का प्रयास किया गया ताकि हिंदुस्तानी का वेश धारण कर फ्रॉड करके मतान्तरण किया जा सके। परंतु इस प्रकार का काला लोशन नहीं मिला तो यह रणनीति बनाई गई कि स्थानीय मिशनरी तैयार किया जाय।
17वी शताब्दी तक हिन्दू धर्म तथा ईसाईयत के बीच परस्पर किसी डायलॉग का साक्ष्य नही मिलता है। सिर्फ अब तक मिशनरियों का एकालाप (MONOLOG) ही चलता रहा। 18वी शताब्दी के प्रारंभ में एक आक्रामक इवेजिलिस्ट जीजेनवाग (Ziegenblag) अपने कार्य हेतु हिन्दुओं के महत्वपूर्ण शिक्षा केंद्रों के पास मिशन कार्यालय खोला। इसमें प्रमुख रूप से श्रीरंगम, तंजौर, मदुरा, कांची, चिदंबरम तथा तिरूपति थे। जीजेनवाग ने ब्राह्मणों से 54 वार्ताएं की और एक बुकलेट “Abominable Heathenism” तैयार किया, जिसमें हिन्दू धर्म के बारे मे सिर्फ गालियाँ थी।
इसी शताब्दी के मध्य में पांडिचेरी में भी हिन्दू और ईसाई का एक सामना का विवरण मिलता है। जिसका उल्लेख आनंद रंगा पिल्लई के डायरी में है। पांडिचेरी के फ्रेंच गवर्नर डुप्लेक्स की पत्नी मैडम डुप्लेक्स की मदद से वेदपुरी ईश्वरन मंदिर तोड़ा गया।
2. दूसरा हिन्दू ईसाई डायलॉग
हिन्दू धर्म और क्रिश्चियनटी के बीच दूसरा डायलॉग तब होता है, जब ब्रिटिश साम्राज्य रनजीत सिंह के सतलज पर सिख स्टेट को छोड़कर लगभग पूरे भारत मे अपनी जड़ें जमा चुका था। यह डायलॉग के जीजेनवाग के माध्यम से हुई डायलॉग के लगभग 100 वर्ष बाद कलकत्ता में प्रारंभ होता है। और राजाराममोहन राय और सेरामपुर मिशनरी के मध्य सन् 1820 में हुआ।
बंगाल पुर्तगाली मिशनरियों के अत्याचारी कारनामों से परिचित थे। कुछ मिशनरी बंगाली भाषा सीख कर ईसाईयत का प्रचार बंगाल में करते रहे। उदाहरण के लिए डॉम एंटोनियो ने ‘ब्राह्मण- रोमन- कैथोलिक संवाद’ नामक पुस्तक में काल्पनिक डायलॉग लिखा। परन्तु इन सबका बंगाल पर कोई विशेष प्रभाव नही पड़ा। इस कार्य मे तेज़ी तब आई जब विलियम कैरे (1761-1834) ने सन् 1800 में सेरामपुर में बैप्टिस्ट मिशन की स्थापना की। इसी से कृष्णचंद्र पॉल नामक बंगाली हिन्दू को मतांतरित करवा कर पहला ईसाई बनाया गया।
अब तक ब्रिटिश सरकार द्वारा मिशनरियों को ब्रिटिश समर्थन प्राप्त नही था। परन्तु मराठो के पराभव के बाद विलियम बिल्बरफ़ोर्स द्वारा मिशनरियों के पक्ष में प्रभावी पैरवी के फलस्वरूप ब्रिटिश सरकार मिशनरियों के कार्य मे सहयोग देना प्रारंभ कर दिया।
राजा राममोहन राय ने चौथे गॉस्पल की कड़ी आलोचना की जो ईसा के जीवन, क्रॉस पर मृत्यु तथा उनके उपदेशों से संबंधित है। राममोहन ने “The Brahmanical Magazine” नामक पत्रिका का प्रकाशन बंगाली तथा अंग्रेजी में प्रारंभ किया। पत्रिका में मिशनरी मेथड तथा ब्रिटिश सरकार द्वारा मिशनरियों को दी जाने वाली अप्रत्यक्ष सहायता की कड़ी आलोचना की। तथा ईसाई ट्रिनिटी सिद्धात को हिंदू बहुदेववाद के समतुल्य बताया। ट्रिनिटी सिद्धांत की खिल्ली उड़ाते हुए 1823 में ‘पादरी शिष्य संवाद’ नामक लेख भी लिखा। इन सब के बावजूद राममोहन को शीघ्र ही यह अहसास हुआ कि मिशनरी ब्रिटिश साम्राज्य का ही एक अंग हैं। और यह अहसास उन्हें और मुखर होने से रोक दिया।
उन्होंने अधिकांश ईसाई मत के सिद्धांत का खंडन किया। परंतु ईसा मसीह को एक महान नैतिक उपदेशक मानकर सम्मान भी दिया। ईसा को यह सम्मान देना काफी महंगा साबित हुआ। ब्रह्म समाज जब केशव चन्द्र सेन के नेतृत्व में आया, तो सेन का ईसामोह ब्रह्म समाज की स्थापना पर ही प्रश्न चिन्ह लग गया और यह संस्था हिन्दुओं से विलग होती चली गयी।
इसी अवधि में महाराष्ट्र में भी हिन्दू ईसाई डायलॉग प्रारंभ हुआ। यह मुख्य रूप से जान विल्सन तथा मोरेभट्ट दांडेकर के मध्य फरवरी 1831 में हुआ। फलस्वरूप विल्सन ने ‘An exposure of Hindu Religion’ नामक पुस्तक लिखा। जिसका जवाब दांडेकर ने ‘श्री हिन्दू धर्म स्थापना’ नामक पुस्तक में दिया। विल्सन का दूसरा संवाद नरायन राव से हुआ। इसी तरह से जान म्योर तथा तीन हिन्दू पंडितों से संवाद हुआ। ये हिन्दू पंडित सोमनाथ, हरचंद्र तर्क पंचानन तथा नीलकान्त गोरेह थे। इस सवांद की सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि यह संवाद संस्कृत भाषा में हुआ। म्योर संस्कृत भाषा से इतना प्रभावित हुआ कि उसने एडिनबर्ग में 1862 में संस्कृत भाषा, साहित्य तथा दर्शन की पीठ की स्थापना किया और स्वयं को मतांतरण के कार्य से विमुख कर लिया।
1875 में स्वामी दयानंद सरस्वती जी द्वारा लिखित ‘सत्यार्थ प्रकाश‘ प्रकाशित हुआ। दयानंद ने जेहोवा को खून का प्यासा, बदले की भावना वाला तथा अन्यायी बताया और कहा कि ऐसा जेहोवा ही मूसा जैसा राक्षस को अपना पैगम्बर बना सकता है। उत्तर भारत में ईसाईयत का प्रसार अपेक्षाकृत धीमा रहा, जिसका श्रेय महर्षि दयानंद को है।
दक्षिण भारत में थियोसाफिकल सोसायटी की स्थापना से भी ईसाई मत के प्रसार में बाधा उत्पन्न हुई। क्योकि इसके संस्थापक मैडम बलावट्सकी तथा कर्नल आलकाट क्रिश्टियनटी की सारी बुराईयो से परिचत थे। और यूरोप में बुद्धिवादी और मानवतावादी परीक्षण में क्रिश्टियनटी की पोल खुल चुकी थी। इनके लिए बाइबल महज एक अर्नगल प्रलाप था। इसी के समकक्ष हिन्दु टै्रक्ट सोसायटी 1887 में, अद्वैत सभा 1895 में तथा शैव सिद्धान्त सभा की स्थापना 1896 में हुआ, जो अपने स्तर से ईसाई आक्रमकता का प्रतिरोध करते रहे।
अलेक्जेंडर डफ का दृढ विश्वास था कि पश्चिमी शिक्षा हिन्दुओं को अपने धर्म से विमुखकर ईसाई मत में मतांतरण हेंतु जमीन तैयार करेगा। डफ ने 1839 में के.सी. बनर्जी तथा एम.एल. बसाक का और 1843 में लाल बिहारी डे एवं मधुसूदन दत्त का धर्मान्तरण करवाकर ईसाई बनाया। परन्तु विवेकानन्द ने डफ के सपनों को ध्वसत कर दियां।
स्वामी विवेकानन्द डफ के स्काटिश चर्च कालेज के विद्यार्थी थे। उन्होंने शुरु में ब्रह्मसमाज ज्वाइन भी किया था तथा केशवचंद्र सेन के प्रशंसकों में थे। परन्तु सन् 1880 में रामकृष्ण परंमहंस से मुलाकात के बाद स्थिति बदल चुकी थी।
उनका स्पष्ट मत था “कांस्टैन्टाइन के दिनों से ईसाईयत तलवार की सहायता से ही प्रसारित हुई। और ईसाई मत विज्ञान तथा दर्शन के मार्ग को हमेशा अवरुद्ध किया। पश्चिमी देशों की समृद्धि के पीछे ईसाईयत नहीं है बल्कि लोगो का लूट एवं शोषण है। खून और तलवार हिन्दू धर्म का माध्यम नही हैं, बल्कि इसके मूल में प्रेम हैं। ईसाई एवं इस्लाम मजहब की तरह हिन्दू धर्म हर व्यक्ति के लिए एक ही डाग्मा नही निर्धारित करता।”
वर्ष 1893 के अक्टूबर माह पार्लियामेंट आफ रेलीजन में उनका सम्बोधन सर्वविदित है। स्वामी विवेकानंद ने हिन्दुओं में वह आत्मविश्वास पैदा किया, जिसकी उस समय बेहद आवश्यकता थी।
3. हिन्दू धर्म और ईसाईयत के विमर्श का तीसरा चरण
हिन्दूधर्म और ईसाईयत के विमर्श के तीसरा चरण में गोयल ने लगभग 115 पृष्ठो में विस्तार से विवेचना किया है। जो गांधीजी और मिशनरियों के बीच हुआ था। यह विमर्श 1893 में गाधी के दक्षिणी अफ्रीका जाने से लेकर दिसम्बर 1947 तक का है। गांधीजी ने खुली-घोषणा की थी कि धर्मान्तरण अनावश्यक अशान्ति की जड़ है। और यदि उन्हे कानून बनाने का अधिकार मिल जाये तो वह सारा धर्मान्तरण बंद करवा देंगे। परन्तु गांधीजी ने तीन भूलें की जिसका खामियाजा देश आजतक भोग रहा है।
- प्रथम, गांधीजी ने सर्वधर्मसमभाव का नारा दिया और यह समझने में भूल की कि सैमेटिक मजहब भी हिन्दू धर्म जैसा है। जबकि सेमेटिक-मजहब एक विस्तारवादी राजनीतिक अवधारणा है।
- दूसरा, गांधीजी ने माउंट पर्वत के उपदेशों को अनवाश्यक रुप से उच्च प्रचारित किया।
- तीसरा, गांधीजी इस भ्रम में ग्रसित रहे की वे अपने अच्छे स्वभाव एवं न्यायसंगत तर्कों से मिशनरी को नियंत्रित कर सकते हैं।
4. ईसाईयत से चौथा सामना
चौथा चरण देश को आजादी प्राप्त करने के बाद का है। यह स्टेज मूलतः मिशनरियों का स्वर्णीम काल है। मिशनरीज देश के आजाद होने के पूर्व सशंकित थे कि आजादी के बाद उनका क्या भविष्य होगा। किन्तु मिशनरियों की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा जब उन्होने देखा कि उनकी दुकान बंद कराने के बदले, भारतीय संविधान में धर्मान्तरण कराने समेत धर्म प्रचार को ‘मौलिक अधिकार‘ के रुप में उच्च स्थान मिल गया है। स्वतंत्र भारत के चार-पाच वर्ष में ही कई क्षेत्रों में मिशनरी गतिविधियां अत्यंत बेलगाम हो गयी।
तब 1954 में सरकार ने इसके अध्ययन करने और उपाय सुझाने के लिए जस्टिस वी0 एस0 नियोगी की अध्यक्षता में एक सात सदस्यीय समिति का गठन किया, इस में ईसाई सदस्य भी थे। समिति ने 1956 में अपनी रिर्पोट दी जिसका आकलन आंख खोलने वाला था। अपनी जाँच पडताल के सिलसिले में नियोगी समिति चौदह जिलों में सतहत्तर (७७) स्थानों पर गयी। वह 11,000 से अधिक लोगो से मिली। उसने लगभग 400 लिखित बयान एकत्र किये। इसकी तैयार प्रश्नावली पर 385 उत्तर आये, जिसमें 55 ईसाईयों के थे और शेष गैर ईसाईयों के। समिति ने जिन लोगो का साक्षात्कार लिया, वह विभिन्न 700 गावों के थे। समिति को एक भी ऐसा धर्मान्तरित न मिला जिसने धन के लोभ या दबाव के बिना ईसाई बनना स्वीकार किया हो। समिति की राय में ईसाई मिशन भारत के ईसाई समुदाय को अपने देश से विमुख करने का प्रयास कर रहे हैं।
यह ध्यान देने योग्य है कि समिति का आकलन, अन्वेषण तथ्य और साक्ष्य के त्रृटिपूर्ण होने के सम्बन्ध में किसी ने प्रश्न चिन्ह नही लगाया। बल्कि सबने मौन धारण कर उसे चुपचाप किनारे धूल खाने छोड दिया। उसके 43 वर्ष बाद, 1999 में यही बधवा कमीशन रिपोर्ट के साथ हुआ। जिसने उड़ीसा में आस्ट्रेलियाई मिशनरी ग्रहम स्टेंस की हत्या के सम्बन्ध में विस्तृत जांच की थी। एक अर्थ में आश्चर्य है कि ब्रिटिश भारत में मिशनरी विस्तारवाद के विरुद्ध हिन्दू प्रतिरोध सशक्त था, जबकि स्वतत्र भारत में यह दुर्बल हो गया।
5. पांचवा चरण
पाचवां चरण हिन्दू पुर्नजागरण का है। यह अब तक जारी है। सितम्बर 1980 राम स्वरुप की पुस्तक “The word as Revelations: Names of God” प्रकाशित हुई। रामस्वरुप ने अपनी पुस्तक में यह उल्लेख किया है कि “हिन्दू धर्म में जो विभिन्न देवताओं का वर्णन है, वह बाहरी अस्तित्व नही रखते, बल्कि चेतना के विभिन्न उच्चतर स्तर हैं। अतः विभिन्न देवो का ज्ञान मूलतः आत्म ज्ञान के विभिन्न स्तर हैं। यह ज्ञान का स्तर भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के लिए भिन्न-भिन्न है। वस्तुतः इसमें आध्यात्मिक चेतना का एकत्व है। यह बहुदेववाद धार्मिक सहिष्णुता तथा आजादी का प्रतीक है।”
छद्म हिन्दू के रुप में रावर्ट डीनोविली ने क्रिश्चियन आश्रय आन्दोपन चलाया था। वर्तमान में “Father Bede Dayanand griffith” क्रिश्चियन संन्यासी के रुप में तमिलनाड के त्रिचुरापल्ली जिले में शान्तिवनम् नामक जगह पर सच्चिदानन्द आश्रम चला रहे थे। परन्तु मूल रुप से उद्देश्य मतांतरण ही था।
स्वामी देवानन्द से उक्त कथित क्रिश्चियन सन्यासी का संवाद हुआ। जिसमें स्वामी देवानन्द ने उनके फ्राड को उजागर किया। इसका विस्तृत वर्णन सीता राम गोयल की पुस्तक “Catholic Ashrams: Adopting and Adapting Hindu Dharm” में किया गया है जो 1988 में प्रकाशित हुई। इसी काल में शरारतपूर्ण थामस मिथ के खण्डन के सम्बन्ध में ईश्वर सरन की पुस्तक “The Myth of Saint Thomas and Mylapore Shiva Temple” 1991 में प्रकाशित हुई। Koenraad Elst की लगभग 18 किताबे प्रकाशित हुई। इन सबके अतिरिक्त राम जन्म भूमि का आन्दोलन भी हुआ।
भारतीय समाज के लिए राजीव मल्होत्रा एक सुखद समाचार हैं। उन्होने दो दशक पहले अपना समृद्ध और विस्तृत व्यापार त्याग कर विश्व के समक्ष भारतीय सभ्यता की दार्शनिक, सैद्धान्तिक और व्यवहारिक विशेषताओं- विभिन्नताओं को रखने का मिशन आरंभ किया। इसी सन्दर्भ में वेंडी डोनीजर का उल्लेख करना आवश्यक है। अमेरिका में डोनीगर के शिष्यों, सहयोगियों ने उन्हे ‘क्वीन ऑफ हिन्दूइज्म‘ का नाम दे रखा है। वेंडी डोनीजर को सारी प्रतिष्ठा और प्रोत्साहन अमेरिकी समाज ने उतनी नही, जितनी स्वयं भारत के कथित सेक्यूलर और वामपंथी प्रचार तंत्र ने दी है।
इसका सीधा कारण यह है कि वेंडी और उनके शिष्यों ने सम्पूर्ण हिन्दू धर्म को एक ऐसी काम केंद्रित व्याख्या की है, जिसे भारत में सक्रिय हिन्दू विरोधी राजनीति बडी उपयोगी मानती है। यह तो इंटरनेट का प्रताप है, जिस कारण Koenraad Elst या राजीव मल्होत्रा जैसे विद्धानों की बातें भी धारे-धीरे दुनिया के सामने आ गयी। इस पृष्ठभूमि में ही डोनीगर की पुस्तक The Hindus: An Alternative History (2009) को पेग्विन से वापस लेने की घटना को ठीक से समझा जा सकता है। यह राजीव मल्होत्रा जैसे विद्धानो बौद्धिक अभियानों का भी योगदान है कि खुद हिन्दुइज्म की महारानी की पुस्तक को दुनिया का सबसे प्रभावशाली प्रकाशक वापस करने को मजबूर हो गया। उसने पाया कि यह केवल अभिव्यक्ति स्वतंत्रता का मामला नही है, जिसमें आप जो चाहे लिखें, बोलें।
अब वर्तमान मे यह माहौल है कि पहले के गढे गये नैरेटिव को चुनौती मिल रही है। जिससे बौखलाहट में उनके द्वारा असहिष्णुता का राग अलापा जा रहा है। वास्तव में यह मोनोलाग को तोडकर विर्मश किया जा रहा है। जो दंभ में डूबे बुद्धिजीवियों को स्वीकार नही हो पा रहा है।
लेखक- शिवपूजन त्रिपाठी
(लेखक भारतीय इतिहास एवं संस्कृति के गहन जानकर एवं अध्येता हैं)
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