गंगा जमुनी तहजीब और मुसलमान


गंगा जमुनी तहजीब और मुसलमान

अभी तसलीमा नसरीन ने कहा कि “जब गैर-मुस्लिम अपने धर्म की आलोचना करते हैं तो उन्हें बुद्धिजीवी कहा जाता है। जब मुस्लिम अपने धर्म की आलोचना करते हैं तो उन्हें इस्लाम का दुश्मन, यहूदी, रॉ का एजेंट सहित जाने क्या-क्या कहा जाता है।”

इस्लाम की आलोचना पर मार डालने के फतवे क्यो?

   क्या इस पर मुसलमानों को सोचना नहीं चाहिए? बात तो सही है। हिन्दू समाज के मणिशंकर अय्यर, रोमिला थापर जैसे अनेक महानुभावों ने हिन्दू धर्म की खूब आलोचनाएं की है। मगर उन्हें बड़े बुद्धिजीवी का सम्मान मिलता रहा है। कहीं उन्हें गाली तक न दी गई, धमकी या मारना तो बात दूर रहा। बल्कि उन पर जानकार हिन्दू और पंडित प्रायः हँस देते हैं। तब इस्लाम की आलोचना करने वाले मुस्लिम लेखक-लेखिकाओं का अपमान, उन्हें मार डालने के फतवे और कोशिशें क्यों की जाती हैं? जबकि इन लेखकों की काबिलियत प्रमाणित है। उन की पुस्तकें, व्याख्यान आदि देश-विदेश में पढ़े-सुने जाते रहे हैं। नगीब महफूज, इब्न वराक, अनवर शेख, सलमान रुशदी, वफा सुलतान, हिरसी अली, आदि नाम तुरत ध्यान आते हैं। उन की बातों की काट बात से क्यों नहीं की जाती, जैसे रोमिला थापर की हिन्दू-विरोधी आलोचना का उत्तर दिया जाता है?

   दो ही बातें हो सकती हैं। या तो इस्लाम की कुछ प्रमाणिक आलोचनाओं के सामने आलिम उलेमा निरुत्तर हो जाते हैं। पर वह मानने से इंकार कर आलोचक पर गंदे आरोप लगाकर बात बदलते और मुसलमानों को भड़काते हैं। अन्यथा, एक धर्म-विश्वास के रूप में इस्लाम ऐसा है कि बिना हिंसा, धमकी और जोर-जबर्दस्ती अपने अनुयायियों के साथ भी विमर्श नहीं कर सकता। नहीं तो किसी लेखक, विचारक को गाली या धमकी देने की जरूरत ही क्या है? 

किसी धर्म-मत की आलोचना उसका अपमान नहीं

   यदि कोई आलोचना गलत है, तो गलती प्रमाणित कर दो! बात खत्म! सच पूछें, तो किसी विद्वान, बुद्धिजीवी की ज्यादा फजीहत तभी होती है, जब उस की बात गलत साबित कर दी जाए। किसी की एक बात गलत साबित हो जाने पर उस की अन्य बातें भी संदिग्ध हो जाती हैं कि पता नहीं उस ने जाने-अनजाने और कौन-कौन सी गलत बातें लिख छोड़ी हैं। इसीलिए किसी कवि, लेखक, विद्वान की बात को गंभीरता से लेना चाहिए। क्योंकि उस का काम ही शब्द, वाक्य, विचार और चिंतन है। गलत लिख-बोल कर वह अपनी हानि करेगा। जबकि सच लिख कर वह समाज की ऐसी सेवा करता है जो दूसरे नहीं कर करते।

   इसीलिए, तसलीमा के दुःख पर मुसलमानों को सोचना चाहिए। सही उत्तर खोजना चाहिए। कोई मत यदि सत्य होने का दावा करता है, तो उस की रक्षा के लिए तलवार उठाने की जरूरत तब तक नहीं, जब तक कोई तलवार से उस मत के अनुयायियों को चोट नहीं पहुँचाता। लेकिन कोई लेखक तो केवल विचार प्रकट करता है। उस का उत्तर विचार से देना पर्याप्त है।

   जहाँ तक किसी धर्म के सम्मान-अपमान की बात है, तो मामला और उलझ जाता है। एक, किसी धर्म-मत की आलोचना उसका अपमान नहीं है। जब स्वामी दयानन्द सरस्वती ने मंदिरों में मूर्ति-पूजा की आलोचना की तो इसे हिन्दू धर्म का अपमान नहीं माना गया। दयानन्द का उत्तर दूसरे ज्ञानियों ने दिया। जिसे जिस की बात ठीक लगे, वह उस से चले। हिन्दू समाज ने दयानन्द को भी महर्षि का सम्मान दिया। 

क्या केवल इस्लाम का ही मान-सम्मान है? 

   क्या दूसरे धर्मों के सम्मान की चिंता भी नहीं होनी चाहिए? जगजाहिर है कि शिष्टाचार, सदभाव और आदर दोतरफा ही चलता है, एकतरफा नहीं। लेकिन इस्लाम के मामले में हमेशा एकतरफा चलाने की जिद रही है।

Ganga Jamuni Gahanon aur muslaman
55 मीटर बुध्द प्रतिमा 1963 में और तोड़ने के बाद 2008 में

  बामियान में सदियों पुरानी ऐतिहासिक बुद्ध-प्रतिमा को तोपों से उड़ा देना और पाकिस्तान-बंगलादेश में सैकड़ों हिन्दू मंदिर तोड़ना तो आज की बात है! पहले भी अरब के मक्का, यूरोप के यरूशलम, कॉन्स्टेंटीनोपल से लेकर भारत में अयोध्या, मथुरा, काशी तक मुसलमानों ने क्या अरबों के पारंपरिक धर्म या ईसाई, बुद्ध, हिन्दू धर्म के सम्मान की चिंता की है? इस्लामी किताबें और आलिम उलेमा दूसरे धर्मों, उन के देवी-देवताओं, अवतारों को ‘झूठा’, ‘कुफ्र’ आदि कहकर केवल अपमान करते हैं।

Ganga Jamuni Gahanon aur muslaman
38 मीटर बुध्द प्रतिमा तोड़ने के बाद

  अतः ‘इस्लाम के अपमान’ पर रंज होने वाले जरा अपने गिरहबान में झाँकें। दूसरों का अपमान कर अपने लिए सम्मान पाना कैसे संभव है? यह बिलकुल असंभव है। इसीलिए इस्लाम को शुरू से ही तलवार के बूते चलना पड़ा। पर मानवता को अच्छे विचारों, अच्छे कर्मों, उद्देश्यों आदि के रूप में इस्लाम की देन क्या है– यह भी मुसलमानो के सोचने का विषय बनता है। बात-बात में मरने-मारने की बातें ईश्वरीय मामला नहीं, राजनीतिक धौंस-पट्टी है।

   पर वह समय सदियों पहले जा चुका जब इस्लामी तलवार यूरोप, अफ्रीका और एसिया तक फैल गई थी। वह युग सदा के लिए खत्म हुआ। यह न समझने से ही बहावी, देवबंदी, अल कायदा या इस्लामी स्टेट जैसे लोग दूसरों के साथ-साथ अपनों का भी कत्ल करते रहे हैं। वे लोगों को धमकी या मार-मार कर दुनिया में इस्लामी साम्राज्य बनाना चाहते हैं। वे खुद कहते हैं कि यह सब वे ‘प्रोफेटिक मेथडोलॉजी’ से कर रहे हैं। यानी, जैसा प्रोफेट मुहम्मद ने किया था, ठीक उसी तरीके का इस्तेमाल कर रहे हैं।

   अब कोई आलोचना करे कि वह मेथड गलत है। सातवीं सदी में भी गलत था। खुद अरब के लोगों ने, मुहम्मद के समकालीन अरबों ने उसे गलत माना था– तो इस में अपमान की क्या बात हुई! यह तो खालिस सचबयानी है। सच से लड़ नहीं सकते। सच से सीख सकते हैं। इसीलिए, किसी धार्मिक विचार में यदि कोई सचाई है, तो उसे हिंसा से मिटाया नहीं जा सकता।

हिन्दू धर्म इस का सर्वोत्तम उदाहरण है 

   गत हजार सालों में मुस्लिम आक्रमणकारियों ने यहाँ हजारों मंदिर तोड़ डाले, अनेक पुस्तकालय जला डाले, लाखों बौद्ध भिक्षुओं, पंडितों, ज्ञानियों का कत्ल किया– तो क्या उपनिषद या धम्मपद गलत साबित हो गए? क्या दुनिया ने वेदांत, महाभारत, स्मृतियों, योगसूत्र को बेकार मान लिया? नहीं। यदि इन ग्रंथों को हिन्दू धर्म-ग्रंथ कहा जाता है, तो साफ है कि इन की मूल्यवत्ता उन विध्वंसों से खत्म न की जा सकी। जबकि यह मुस्लिम हमलावरों का एक घोषित उद्देश्य था!

   अतः जब वेद, पुराण, रामायण, आदि ने अपनी मूल्यवत्ता बिना कोई धमकी दिए बनाए रखी है, तो कुरान, हदीस, सुन्ना को अपने महत्व के लिए हमेशा हिंसा की जरूरत क्यों पड़ती है? उत्तर यही हो सकता है कि उस में अनेक बातें ऐसी नहीं कि मानवता उसे स्वतः माने। इसीलिए तब से आज तक इस्लामवादियों को निरंतर जबर्दस्ती, छल और हिंसा करते रहनी पड़ी है। अपने लोगों के साथ भी जबर्दस्ती। पर जैसे प्रकृति वैसे ही समाज के भी कुछ अकाट्य नियम हैं।

   जिस तरह प्रकाश, वायु, जल, ग्रह-उपग्रह या पदार्थ के नियम किसी मजहब, विश्वास या जोर-जबर्दस्ती से लागू नहीं हैं। उसी तरह, आत्मा, चेतना और मानवता के भी कुछ नियम हैं। हर्ष-विषाद, रोग-स्वास्थ्य, प्रेम-घृणा, आदर-अनादर, ज्ञान-अज्ञान, अच्छाई-बुराई आदि के भी कुछ पक्के नियम हैं। यही धर्म के विषय हैं जिन्हें भी जाँचना-परखना सदैव जरूरी है। इसे कोई मनमाने तय नहीं कर सकता।

   इसीलिए, जब पूरी मानवता वैदिक, बौद्ध, सिखों, यहूदी, ईसाई, पारसी और हिन्दू धर्म की आलोचना करना सामान्य मानती है। तब केवल इस्लाम को ही आलोचना के दायरे से बाहर रखना बेकार कोशिश है। हास्यास्पद है और उलटे इस्लाम की कमजोरी साबित करती है।

Ganga Jamuni Gahanon aur muslaman

    यदि मुसलमान मानवता के सम्मानित, समान हिस्से के रूप में स्थान चाहते हैं तो उन्हें अपने धर्म की बौद्धिक परख की वर्जना या टैबू खत्म करना होगा। कोई धार्मिक विचार मूल्यवान है तो स्वयं सम्मानित होगा। यदि नहीं है तो कोई जोर-जबरदस्ती उसे मान नहीं दिला सकती। कई विवेकशील मुसलमानों ने भी सदियों से यही कहा है। वे सब रॉ के एजेंट नहीं थे।


लेखक : डॉ. शंकर शरण

(लेखक की पुस्तक "मुस्लिम सोचें" का एक अध्याय)



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