जब नेहरु ने अपने “चमचे हीरो” को मोहरा बना कर अपने “विलेन दोस्त” के लिये, एक “राजनीति के संत” की बलि ले ली !!
पिछले लोकसभा चुनाव (2024) में हिमांचल से कंगना राणावत की संसद की उम्मीदवारी को लेकर बवाल मचा हुआ था। कांग्रेसी, वामपंथियों और मझहबी कट्टरपंथियों का गठजोड़ कंगना पर आपत्तिजनक पोस्ट कर रहा है, वहीं लुटियन गैंग के बुद्धिजीवी ये सवाल उठा रहे हैं कि चुनावी राजनीति में बॉलीवुड सितारों का इस्तेमाल क्यों किया जा रहा है? लेकिन ये लंपट गैंग यह नहीं जानता कि बॉलीवुड और राजनीति के इस "कॉकटेल" के असली निर्माता उनके परमपिता, लोकतंत्र के मसीहा, धर्मनिरपेक्षता के रखवाले जवाहरलाल नेहरु हैं। आइये इतिहास के झरोखे में झांक कर सच के दर्शन करते हैं।
नेहरू ने वीके मेनन को चुनाव लड़वाये
तो ये 1962 की बात है! देश में तीसरा आम-चुनाव हो रहा था। नेहरु और कांग्रेस की जीत तय थी, लेकिन इसके बाद भी नेहरु की नींद उड़ी हुई थी। और इसकी वजह थी उत्तरी मुंबई की लोकसभा सीट। जहां से नेहरु के जिगरी दोस्त और भारत के इतिहास के सबसे निकम्मे रक्षा मंत्री वी.के. मेनन (VK Menon) चुनाव लड़ रहे थे। दरअसल उस दौर में रक्षा मंत्री मेनन को लेकर पूरे देश में गुस्से का माहौल था। हालांकि चीन ने भारत पर अक्टूबर 1962 में हमला किया था, लेकिन इसके पहले से ही चीन भारत की सीमा में घुसपैठ करने लगा था। वामपंथी विचारधारा के कट्टर समर्थक वीके मेनन चीन का मुकाबला करने में पूरी तरह से नाकाम हो रहे थे। लेकिन इसके बाद भी नेहरु ने न केवल अपने दोस्त वी.के. मेनन को मंत्रिमंडल में बरकरार रखा, बल्कि उन्हे 1962 के चुनाव में उत्तरी मुंबई से कांग्रेस का उम्मीदवार तक बना दिया।
आचार्य कृपलानी ने वीके मेनन खिलाफ चुनाव लड़े
नेहरु की इस हरकत से आजादी के नायक आचार्य कृपलानी बेहद नाराज़ हो गये। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष आचार्य कृपलानी तब तक अपनी एक अलग पार्टी ‘प्रजा सोशलिस्ट पार्टी’ बना चुके थे। गांधीवादी कृपलानी ने अपनी बिहार की सुरक्षित समझी जाने वाली सीतामढ़ी सीट छोड़कर मुंबई में रक्षा मंत्री मेनन के खिलाफ चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया। कृपलानी को लग रहा था कि वो मेनन को चुनाव में हरा कर देश को चीन के संकट से बचा लेंगे। लेकिन प्रधानमंत्री नेहरु तो मेनन को बचाने का चालाक प्लान पहले से ही बना चुके थे।
दिलीप कुमार पहले अभिनेता थे जिसने चुनाव प्रचार किया था
उन्होंने मोहरा बनाया उस समय के सुपर स्टार युसूफ खान उर्फ दिलीप कुमार को! दिलीप कुमार नेहरु के बेहद खास चमचे थे और इसी चुनावी माहौल में एक दिन प्रधानमंत्री नेहरु ने दिलीप कुमार को फोन लगाया। फोन पर दोनों के बीच क्या बातचीत हुई इसका वर्णन खुद दिलीप कुमार ने अपने आत्मकथा “द सब्सटांस एंड द शेडो” में किया है। ये किताब हिंदी और उर्दू में "वजूद और परछाई" के नाम से प्रकाशित हुई है। इस किताब के पेज नंबर 240 पर दिलीप कुमार ने लिखा है कि -
"पंडित जवाहरलाल नेहरु ने मुझे खुद फोन कर के कहा था कि 'क्या मैं समय निकाल कर बंबई में कांग्रेस ऑफिस में जाकर वी.के. मेनन से मिल सकता हूं? मेनन नॉर्थ बंबई से चुनाव लड़ रहे हैं और उनके खिलाफ एक बड़े नेता जे.बी.कृपलानी चुनाव में खड़े हैं।' मैंने पंडित नेहरु की बात का सम्मान किया। क्योंकि आगाजी के बाद मैं सबसे ज्यादा आदर और सम्मान उन्हीं का करता था। और जैसा उन्होने आदेश दिया था, मैं मेनन से मिलने जुहू में कांग्रेस ऑफिस पहुंच गया।"
दिलीप कुमार ने नेहरु का कहना क्यों माना?
दरअसल इसके पीछे एक बहुत बड़ी वजह थी। दिलीप कुमार नेहरु के अहसानों के बोझ तले दबे हुए थे। एक साल पहले यानी 1961 में दिलीप कुमार की एक फिल्म "गंगा-जमुना" रीलीज़ होने वाली थी, जिसे दिलीप कुमार ने ही प्रोड्यूस और डायरेक्ट किया था। इस फिल्म में काफी हिंसा के दृश्य थे। इसलिए सेंसर बोर्ड ने इसे पास नहीं किया। इससे परेशान होकर दिलीप कुमार ने प्रधानमंत्री नेहरु से मदद मांगी थी। इस वाक्ये का जिक्र खुद दिलीप कुमार ने अपनी आत्मकथा “वजूद और परछाई” के पेज नंबर 242 पर किया है, वो लिखते हैं कि –
"सेंसर बोर्ड ने मेरी फिल्म 'गंगा-जमुना' को सर्टिफिकेट न देकर मेरे साथ नाइंसाफी की थी। जबकि उसी हफ्ते राज कपूर की फिल्म "जिस देश में गंगा बहती है" को उसने सर्टिफिकेट दे दिया था, जबकि उसमें भी हिंसा के दृश्य थे। तब मैंने पंडित नेहरु से मिलने का फैसला किया और उनके सामने अपना पक्ष रखा। मेरी अपील से प्रभावित होकर पंडित नेहरु ने फिर से 'गंगा-जमुना' के रिव्यू का आदेश दिया और सेंसर बोर्ड ने फिल्म को पास कर दिया।"
तो पढ़ा आपने…! लोकतंत्र के मसीहा पंडित नेहरु फिल्म सेंसर बोर्ड के काम में भी दखल देते थे! खैर, इन बातों से साफ है कि दिलीप कुमार कहीं न कहीं नेहरु के अहसानों तले दबे हुए थे और वहीं दूसरी तरफ नेहरु भी जानते थे कि किये गये अहसानों की कीमत कैसे वसूली जाती है। सो नेहरु ने दिलीप कुमार से कीमत वसूली और उन्हे वी.के. मेनन से मिलने भेज दिया। जब दिलीप कुमार कांग्रेस दफ्तर में पहुंचे तो क्या हुआ इसका वर्णन खुद दिलीप कुमार ने अपनी आत्मकथा "वजूद और परछाई" में किया है। वो लिखते हैं कि-
"इस मुलाकात में वी.के. मेनन ने मुझसे कहा कि मुकाबला कड़ा है, वो चाहते थे कि मैं उनके लिए रैली करूं। जब मैं पहली रैली करने पहुंचा तो भीड़ की खुशी और जोश भरी चीख-पुकार और साफ सुनाई देने लगी। मैंने गहरी सांस ली और 10 मिनट तक बोला। जब मेरा भाषण खत्म हुआ तो तालियों की आवाज कानों को बहरा कर देने वाली थी। इस तरह मैंने मेनन के लिए चुनाव प्रचार करते हुए कई भाषण दिए। बाद में कांग्रेस के लिए चुनाव प्रचार करना एक मेरा एक नियमित काम बन गया क्योंकि कृष्ण मेनन चुनाव जीत गए थे।"
यानी दोस्तों नेहरु ने 'नायक' दिलीप कुमार को मोहरा बना कर 'खलनायक' मेनन के लिए सियासत के एक 'संत' आचार्य कृपलानी की बलि ले ली। 1962 में दिलीप कुमार की बदौलत नेहरु के दोस्त रक्षा मंत्री वी.के. मेनन तो जीत गये लेकिन न केवल इससे लोकतंत्र हारा बल्कि देश भी हार गया। जी हां, देश हार गया! इन चुनावी नतीजों के आठ महीने के बाद ही चीन ने भारत पर हमला बोल दिया, हमें परास्त किया और हमारी हजारो किलोमीटर की ज़मीन छीन ली। और ये सब हुआ नेहरु और मेनन की नाकाबिल जोड़ी की वजह से।
‘बलराज साहनी’ का इस्तेमाल अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ
यहां ये बताना भी ज़रूरी है कि 1962 के चुनावों में नेहरु ने एक और फिल्मी नायक ‘बलराज साहनी’ का इस्तेमाल करके सियासत के असली "नायक" अटल बिहारी वाजपेयी की भी बलि ली थी। उन चुनावों में अटल बिहारी वाजपेयी भी नेहरु की चीन नीति और खासकर मेनन के खिलाफ जबरदस्त हमला बोल रहे थे। बलरामपुर से अटल जी को चुनाव हराने के लिए नेहरु ने बलराज साहनी को वहां चुनाव प्रचार के लिए भेज दिया, वो भी पूरे दो दिन के लिए। नतीजा ये हुआ कि बलराज सहानी की वजह से अटल बिहारी वाजपेयी सिर्फ और सिर्फ 2052 वोटों से हार गये, लेकिन हार का ये छोटा सा अंतर आगे जाकर भारतीय सियासत का रिवाज़ बन गया। ये आप लोगों को पता होना चाहिए कि दिलीप कुमार हो या बलराज सहानी, चुनावी में फिल्मी सितारों का सबसे पहले इस्तेमाल लोकतंत्र के रक्षक चाचा नेहरु ने किया था।
देश को मालूम होना चाहिए कि नेहरु के ज़माने में बहुत कुछ हुआ है, जो हमेशा बुद्धिजीवियों ने सात तालों में छुपा कर रखा था। इसलिये अब से आपके लिये लेकर आउंगा– “चाचा नेहरु के चुनावी किस्से”