भारतीय ज्ञान का खजाना भाग- 01 : पंचमहाभूतों के मंदिरों का रहस्य

पंच महाभूत मंदिर का रहस्य

 तमिल भाषा में 'एकाम्बरेश्वर’ अर्थात आम के वृक्ष वाले देवता। आज भी मंदिर के परिसर में एक बहुत प्राचीन आम का वृक्ष लगा हुआ है। कार्बन डेटिंग जाँच के अनुसार इस वृक्ष की आयु भी लगभग साढ़े तीन हजार वर्ष पुरानी ही निकली है। इस आम के वृक्ष को चार वेदों का प्रतीक समझा जाता है। ऐसा कहा जाता है कि इस एक ही पेड से चार भिन्न-भिन्न स्वादों के आम निकलते हैं। 
इस लेखमाला, यानी ‘भारतीय ज्ञान का खजाना’ का उद्देश्य है कि हमारे प्राचीनतम देश में छिपे हुए अनेक अदभुत एवं ज्ञान पूर्ण बातों को जनता के सामने लाना। इस पुस्तक का प्रत्येक लेख प्रिंट मीडिया एवं सोशल मीडिया के माध्यम से अक्षरशः लाखों लोगों तक पहुँचता है। संभवतः इसीलिए पत्र, फोन एवं सोशल मीडिया के माध्यम से प्रतिक्रियाओं की मानो वर्षा ही हो रही है। 
परन्तु ऐसी अनेक बातें हैं, जो हमें पता चलने पर हम भौचक्के रह जाते हैं, सुन्न हो जाते हैं। आज जो बातें हमें असंभव की श्रेणी में लगती हैं, वह आज से ढाई-तीन हजार वर्षों पहले भारतीयों ने कैसे निर्माण की होंगी? कैसे बनाई होंगी?... यह एक प्रश्नचिन्ह हमारे सामने निरंतर बड़ा होता जाता है।  

हिन्दू दर्शन में पंचमहाभूतों का विशेष महत्त्व है

पश्चिमी जगत ने भी इस संकल्पना को मान्य किया है। डेन ब्राउन जैसे प्रसिद्ध लेखक ने भी इस संकल्पना का उल्लेख किया है और इस विषय पर इन्फर्नो जैसा उपन्यास भी लिखा। यह पंचमहाभूत हैं- जल, वायु, आकाश, पृथ्वी एवं अग्नि। ऐसी मान्यता है कि हम सभी का जीवनचक्र इन पाँचों महाभूतों के आधार पर ही आकार ग्रहण करता है।
भारतीय ज्ञान का खजाना
यह बात कितने लोगों की जानकारी में है कि हमारे देश में इन पंचमहाभूतों के भव्य एवं विशिष्टताओं से भरे मंदिर हैं? बहुत ही कम लोगों को इसकी जानकारी है। जो लोग भगवान शंकर के उपासक हैं, उन लोगों को इन मंदिरों की जानकारी होने की थोड़ी बहुत संभावना है। क्योंकि इन पंचमहाभूतों के मंदिर अर्थात शिव मंदिर, भगवान शंकर के मंदिर है। लेकिन इसमें कोई बड़ी विशेषता अथवा रहस्य तो नहीं है... फिर इनकी विशेषता किस बात में है?? 

अक्षांश और रेखांश का ज्ञान

पंचमहाभूतों के इन पाँच मंदिरों की विशेषता अथवा रहस्य यह है कि इनमें से तीन मंदिर, जो एक-दूसरे से कई सौ किमी दूरी पर स्थित हैं, यह तीनों एक ही रेखा पर स्थित हैं। जी हाँ..! बिलकुल एक सीधी रेखा में हैं...। 
यह तीन मंदिर हैं –
  • श्री कालहस्ती मंदिर
  • श्री एकम्बरेश्वर मंदिर, कांचीपुरम
  • श्री तिलई नटराज मंदिर, त्रिचनापल्ली 
तीनो मंदिर एक ही रेखांश ७९.४१E पर स्थित है
पृथ्वी पर किसी स्थान को चिन्हित या तय करने के लिए हम जिन निर्देशांक (Co-Ordinat) का उपयोग करते हैं, एवं जिसे हम अक्षांश व रेखांश कहते हैं। इनमें से अक्षांश (Latitude) अर्थात पृथ्वी के नक़्शे पर खींची गई (काल्पनिक) आड़ी रेखाएं। जैसे कि विषुवत, कर्क रेखा इत्यादि...। जबकि रेखांश इसी नक़्शे पर खींची गई लम्बवत रेखाएं। इन तीनों मंदिरों के अक्षांश और रेखांश इस प्रकार से हैं–
  1. श्री कालहस्ती मंदिर- अक्षांश- 13.76N, रेखांश- 79.41E , पंचमहाभूत तत्त्व- वायु
  2. श्री एकम्बरेश्वर मन्दिर- अक्षांश- 12.50N, रेखांश- 79.41E, पंचमहाभूत तत्त्व- पृथ्वी
  3. श्री तिलई नटराज मन्दिर- अक्षांश- 11.23N, रेखांश- 79.41 E, पंचमहाभूत तत्त्व- आकाश 

यह तीनों मंदिर एक ही रेखांश बिंदु 79.41E पर स्थित हैं, अर्थात एक ही सीधी रेखा पर हैं। कालहस्ती और एकाम्बरेश्वर मंदिर के बीच लगभग सवा सौ किमी की दूरी है और एकाम्बरेश्वर तथा नटराज मंदिर के बीच लगभग पौने दो सौ किमी का अंतर है। यह तीनों मंदिर कब निर्माण किए गए, यह बताना कठिन है। इस क्षेत्र में जिन्होंने शासन किया है, वे पल्लव, चोल इत्यादि राजाओं द्वारा इन मंदिरों का नवीनीकरण किए जाने का उल्लेख अवश्य मिलता है। परन्तु लगभग तीन-साढ़े तीन हजार वर्ष पुराने तो हैं ही, यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है।   
अब इसमें वास्तविक आश्चर्य यही है कि लगभग साढ़े तीन हजार वर्ष पूर्व आपस में इतनी दूरी पर स्थित ये तीनों मंदिर एक ही सीधी रेखा यानी रेखांश पर कैसे निर्मित किए गए होंगे? 
इसका अर्थ यह है कि उस कालखंड में भी भारत में नक्शाशास्त्र इतना उन्नत था कि, उन्हें अक्षांश-रेखांश इत्यादि का ठोस ज्ञान था! परन्तु यदि किसी को अक्षांश-रेखांश का परिपूर्ण ज्ञान हो, तब भी एक सीधी रेखा में मंदिर निर्माण करने के लिए नक्शा शास्त्र के अलावा “कंटूर मैप” का ज्ञान भी आवश्यक है। तो इन मंदिरों के निर्माण में कौन सी प्रक्रिया, सूत्र एवं समीकरण उपयोग किए गए, यह अब समय की गर्त में खो गया है…। 
सब कुछ अविश्वसनीय सा प्रतीत होता है और आश्चर्य यहीं पर समाप्त नहीं होता है। बल्कि जब अन्य दो मंदिरों को इस सीधी रेखा में स्थित मंदिरों से जोड़ा जाता है, तब उसमें एक विशिष्ट कोण निर्माण होता है। इसका दूसरा अर्थ भी है। उस कालखंड में हमारे वास्तुविदों के ज्ञान की गहराई कितनी होगी यह दिखाई देता हैं।
भूमि के कुछ हजार किमी में फैले हुए भूभाग पर ये वास्तुविद, पंचमहाभूतों के पाँच शैव मंदिरों का बड़ा सा आकार बनाते हैं और उस रचना के माध्यम से हमें कोई विशेष संकेत देने का प्रयास करते हैं। यह हमारा ही दुर्भाग्य है कि हम उस प्राचीन ज्ञान की कूट भाषा को समझ नहीं पाते हैं।  

पाँच महाभूतों के मंदिर 

  1. कालहस्ती मंदिर
  2. ‘एकाम्बरेश्वर मंदिर’
  3. तिलई नटराज मंदिर
  4. जम्बुकेश्वर मंदिर
  5. अरुणाचलेश्वर मंदिर
पंचमहाभूत मंदिरों की स्थिति

१- वायु तत्व का "कालहस्ती मंदिर" 

इन पंचमहाभूतों के मंदिरों में से एक मंदिर आंध्रप्रदेश में स्थित है, जबकि चार मंदिर तमिलनाडु में निर्मित हैं। इनमें से वायु तत्व का प्रतिनिधित्व करने वाला मंदिर है कालहस्ती मंदिर। यह आंध्रप्रदेश के चित्तूर जिले में, तिरुपति से लगभग ३५ किमी दूरी पर स्थित है। स्वर्णमुखी नामक छोटी सी नदी के किनारे पर यह मंदिर स्थापित किया गया है। हजारों वर्षों से इस मंदिर को ‘दक्षिण का कैलाश’ अथवा ‘दक्षिण काशी’ कहा जाता है। 
श्रीकालहस्ती मन्दिर
श्रीकालाहस्ती मंदिर

भले ही यह मंदिर अत्यंत प्राचीन हो, तब भी मंदिर का अंदरूनी गर्भगृह वाला भाग पाँचवीं शताब्दी में, जबकि बाहरी गोपुर वाला भाग ग्यारहवीं शताब्दी में बनाया गया है। पल्लव, चोल और उसके पश्चात विजयनगर साम्राज्य के राजाओं ने इस मंदिर की मरम्मत और निर्माण किए जाने के उल्लेख मिलते है। इस मंदिर में आदि शंकराचार्य भी आ चुके हैं, ऐसा साहित्य में उल्लेख है। स्वयं शंकराचार्य ने ‘शिवानंद लहरी’ (download) में इस मंदिर एवं यहाँ के परम भक्त कणप्पा का उल्लेख किया है। 
यह मंदिर पंचमहाभूतों में से ‘वायु’ का प्रतिनिधित्व करता है। इस बात के भी आश्चर्यजनक संदर्भ हमें प्राप्त हो जाते हैं। जैसे कि इस मंदिर में शिवलिंग सफ़ेद रंग का है एवं इसे स्वयंभू शिवलिंग माना जाता है। इस शिवलिंग में वायुतत्व होने के कारण इसे कभी भी स्पर्श नहीं किया जाता है। मंदिर के मुख्य पुजारी भी इस शिवलिंग को स्पर्श नहीं करते हैं। अभिषेक एवं पूजा करने के लिए एक ‘उत्सव शिवलिंग’ पास में स्थापित किया गया है।
विशेष बात यह है कि इस मंदिर के गर्भगृह में एक दीपक अखंड रूप से जलता रहता है एवं उस गर्भगृह में कहीं से भी हवा आने का साधन नहीं होने के बावजूद वह दीपक सदैव फड़फड़ाते रहता है। यहाँ तक कि पुजारियों द्वारा मंदिर का मुख्य द्वारा बन्द करने के बाद भी इस दीपक की ज्योति फडफडाती ही रहती है...! आज तक किसी भी वैज्ञानिक को इस का कारण समझ नहीं आया है। परन्तु स्थानीय लोगों का यही कहना है कि चूँकि शिवलिंग में वायु तत्त्व है, इसी कारण गर्भगृह के उस दीपक की ज्योति सदैव फडकती रहती है। 

२- पृथ्वी तत्व का ‘एकाम्बरेश्वर मंदिर’

इसी मंदिर से लगभग १२५ किमी दूरी पर दक्षिण में एकदम सीधी रेखांश बिंदु पर स्थित दूसरा मंदिर है ‘एकाम्बरेश्वर मंदिर’। यह तमिलनाडु के प्रसिद्ध कांचीपुरम स्थित, पृथ्वी तत्त्व का प्रतिनिधित्व करने वाला मंदिर है। 
पृथ्वी तत्व का ‘एकाम्बरेश्वर मंदिर’

पृथ्वी तत्त्व होने के कारण ही इस मंदिर का शिवलिंग मिट्टी का बना हुआ है। ऐसा माना जाता है कि भगवान शंकर को प्राप्त करने के लिए आम के वृक्ष के नीचे माता पार्वती ने मिट्टी के शिवलिंग की तप-आराधना की थी, यही वह शिवलिंग है। इसीलिए इसे एकाम्बरेश्वर मंदिर कहा जाता है।
तमिल भाषा में 'एकाम्बरेश्वर’ अर्थात आम के वृक्ष वाले देवता। आज भी मंदिर के परिसर में एक बहुत प्राचीन आम का वृक्ष लगा हुआ है। कार्बन डेटिंग जाँच के अनुसार इस वृक्ष की आयु भी लगभग साढ़े तीन हजार वर्ष पुरानी ही निकली है। इस आम के वृक्ष को चार वेदों का प्रतीक समझा जाता है। ऐसा कहा जाता है कि इस एक ही पेड से चार भिन्न-भिन्न स्वादों के आम निकलते हैं।  
3500 वर्ष पुराना आम का पेड़

यह मंदिर ‘कांचीपुरम’ नामक मंदिरों की नगरी में है। कांचीपुरम शहर ‘कांजीवरम’ साड़ियों के लिए विश्व-प्रसिद्ध है। इस मंदिर में तमिल, तेलुगु, अंग्रेजी एवं हिन्दी में एक फलक (बोर्ड) लगा हुआ है कि "यह मंदिर ३५०० वर्ष प्राचीन है"। हालाँकि ठोस रूप से यह कहना कठिन है कि वास्तव में मंदिर कितना पुराना है। आगे चलकर पाँचवीं शताब्दी में पल्लव, चोल एवं विजयनगर साम्राज्य के राजाओं ने इस मंदिर की मरम्मत एवं देखरेख किए जाने के उल्लेख ग्रंथों में मिलते हैं। 

३- आकाश तत्व का "तिलई नटराज मंदिर"

इन दोनों मंदिरों की ही सीधी रेखा में दक्षिण दिशा में, एकाम्बरेश्वर मंदिर से लगभग पौने दो सौ किमी दूरी पर स्थित है पंचमहाभूतों का तीसरा मंदिर अर्थात तिलई नटराज मंदिरआकाश तत्त्व का प्रतिनिधित्व करने वाला यह मंदिर तमिलनाडु के चिदम्बरम शहर में स्थित है। 
तिलई नटराज मंदिर

ऐसा माना जाता है कि स्वयं पतंजलि ऋषि ने इस मंदिर की स्थापना की थी। इसलिए ठीक-ठीक कहना कठिन है कि इस मंदिर का निर्माण कब हुआ। परन्तु इसकी भी देखभाल एवं मरम्मत पल्लव, चोल एवं विजयनगर साम्राज्य के राजाओं द्वारा पाँचवी शताब्दी में की गई, इसका उल्लेख ग्रंथों में मिलता है।
इस मंदिर के अंदर ‘भरतनाट्यम’ नृत्य की विभिन्न १०८ मुद्राओं को पत्थर के स्तंभों पर उकेरा गया है। इसका अर्थ यही है कि भरतनाट्यम नामक नृत्य शास्त्र भारत में कुछ हजार वर्षों से पहले से ही काफी विकसित था। मंदिर में पत्थर के अनेक स्तंभों पर भगवान शंकर की अनेक मुद्राएं भले ही खुदी हुई हों, परन्तु नटराज की मूर्ति एक भी नहीं बनाई गई है... यह मूर्ति केवल गर्भगृह में ही विराजमान है। 
इस मंदिर के गर्भगृह में भगवान शंकर, नटराज के रूप में हैं, और साथ में शिवकामी अर्थात पार्वती की मूर्ति भी है। अलबत्ता नटराज रूपी शिव प्रतिमा के दाँयी तरफ थोडा सा रिक्त स्थान है, जिसे ‘चिदंबरा रहस्यम’ कहा जाता है। इस खाली स्थान को स्वर्ण की गिन्नियों वाले हार से सजाया जाता है। यहाँ की मान्यता के अनुसार यह रिक्त स्थान, खाली नहीं है, बल्कि वह आकारहीन आकाश तत्त्व है। 
पूजा के समय को छोड़कर बाकी के पूरे समय पर यह रिक्त स्थान लाल परदे से आच्छादित रहता है। पूजा करते समय लाल परदा सरका कर उस आकारहीन शिव तत्त्व अर्थात आकाश तत्त्व की भी पूजा की जाती है। ऐसी मान्यता है कि यहाँ पर शिव एवं काली-माता के रूप में पार्वती, दोनों ने नृत्य किया था। 
चिदम्बरम से लगभग चालीस किमी दूरी पर कावेरी नदी समुद्र में जाकर मिलती है। इस क्षेत्र में आठवीं/ नौवीं शताब्दी में चोल राजाओं ने जहाज़ों के लिए बंदरगाह का निर्माण किया था। इस स्थान का नाम है पुम्पुहार। एक समय पर यह पूर्वी तट का बहुत बड़ा बंदरगाह था, परन्तु आजकल अब वह एक छोटा सा गाँव मात्र रह गया है। 
इस पुम्पुहार में कुछ वर्ष पहले पुरातत्व विभाग ने उत्खनन किया था, और तब समझिए कि उन्हें अक्षरशः विशाल खजाना ही मिला था। पुराविदों को यहाँ लगभग ढाई हजार वर्ष प्राचीन एक अत्यंत समृद्ध एवं विकसित शहर का पता चला। इस विशाल नगर का नियोजन, इस नगर के मार्ग, घर, नालियाँ, जल निकासी की व्यवस्था देखकर हम आज भी आश्चर्यचकित हो जाते हैं। 
कुल मिलाकर यह कहना उचित ही होगा कि आज से लगभग तीन हजार वर्ष पहले इस परिसर में एक अत्यंत समृद्ध एवं विकसित संस्कृति मौजूद थी। जिस संस्कृति द्वारा पंचमहाभूतों के पाँचों मंदिरों हेतु एक भव्य प्रांगण, इस विशाल स्थान पर निर्माण किया था।

इन तीनों ही मंदिरों द्वारा एक ही रेखांश पर तैयार की गई सीधी रेखा से एक विशेष कोण बनाते है।  इन पंचमहाभूतों में से चौथा मंदिर है- जम्बुकेश्वर मंदिर 

४- जल तत्व का "जम्बुकेश्वर मंदिर"

त्रिचनापल्ली के पास, तिरुवनैकवल गाँव में यह मंदिर स्थित है। पंच महाभूतों में से एक अर्थात ‘जल’ का प्रतिनिधित्व करने वाला, कावेरी नदी के उत्तरी किनारे पर स्थित इस मंदिर की विशेषता यह है कि यहाँ पर शिवलिंग के नीचे पानी का एक छोटा सा झरना है, जिस कारण यह शिवलिंग निरंतर पानी में डूबा हुआ रहता है। 
जम्बुकेश्वर मंदिर

ब्रिटिश काल में फर्ग्युसन नामक पुरातत्वविद ने इस मंदिर के बारे में काफी शोधकार्य किया, जिसे अनेक लोगों ने ठोस प्रमाण माना। उसके मतानुसार चोल वंश के प्रारंभिक काल में इस मंदिर का निर्माण हुआ। परन्तु उसका यह निरीक्षण गलत था, यह बात अब सामने आ रही है। क्योंकि मंदिर में प्राप्त एक शिलालेख के आधार पर यह अब सिद्ध किया जा चुका है कि ईसा पूर्व कुछ सौ वर्ष पहले ही यह मंदिर अस्तित्त्व में था। 
जम्बुकेश्वर मंदिर

५- अग्नि तत्व का "अरुणाचलेश्वर मंदिर"

उस सीधी रेखांश पंक्ति के तीन मंदिरों के साथ विशिष्ट कोण पर बनाए गए पंच महाभूतों  के मंदिरों में से अंतिम मंदिर है– अरुणाचलेश्वर मंदिर। तमिलनाडु में ही तिरुअन्नामलाई में यह मंदिर स्थित है। पंचमहाभूतों में से अग्नि तत्त्व का प्रतिनिधित्व करने वाला यह मंदिर भारत के बड़े मंदिरों में से एक है। यह मंदिर एक पहाड़ी पर एक विशाल परिसर में निर्मित किया गया है। सात सौ फुट से अधिक ऊँचाई वाली दीवारों के अंदर निर्माण किए गए इस मंदिर के प्रमुख गोपुर की ऊँचाई १४ मंजिली इमारत के बराबर है। 
अरुणाचलेश्वर मंदिर

यह पाँचों शिव मंदिर एवं जमीन पर उनकी संरचना अक्षरशः चमत्कृत करने वाली है। इन पाँच में से तीन मंदिर एक सीधी रेखा में होना कोई साधारण संयोग नहीं हो सकता। तमिलनाडु के विशाल भू-भाग पर इन मंदिरों का ऐसा सटीक निर्माण एक अदभुत घटना ही है। इन मंदिरों की रचना के माध्यम से निर्मित होने वाली कूट भाषा यदि हम आधुनिक काल में समझ पाते तो प्राचीन काल के अनेक रहस्य हमारे समक्ष खुल सकते थे...!! 

- प्रशांत पोळ

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