भारतीय ज्ञान का खजाना भाग- 02 : भारत का प्राचीन जल-व्यवस्थापन

Bharatiya gyan ka khajana
अनेक प्रतिक्रियाओं में अधिकाँश लोगों का यह कहना था कि, हमें ऐसे अदभुत मंदिरों के बारे में कोई जानकारी ही नहीं थी। इसमें उनकी भी गलती नहीं। हम सभी का यह दुर्भाग्य है कि वैज्ञानिक, वैभवशाली, सांस्कृतिक विरासत हमें मालूम ही नहीं है। अनेक मामलों में हमें ऐसा प्रतीत होता है। वर्तमान में पड़ रहे सूखे के कारण यह बात प्रमुख रूप से सभी के सामने उभरकर आई है। 
इस बार सूखे ने समूचे देश में, अत्यधिक नुकसान किया है। पानी के लिए मनुष्य दूर-दूर भटक रहा है। महाराष्ट्र के लातूर जैसे शहर में तो स्थिति भयावह हो चुकी है। दो वर्ष पूर्व यहाँ पानी को लेकर दंगे हुए और धारा १४४ लगानी पड़ी। इस विकट परिस्थिति से यह बात साफ होती हैं कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारत में-
  • पानी का नियोजन और व्यवस्थापन ठीक से नहीं किया गया।
  • ना ही अच्छे बाँध बनाए गए,
  • ना ही नहरें बनाई गईं और
  • ना ही जमीन के अंदर पानी वापस पहुँचाने के, पानी को रिसाने के कोई उपाय किए गए।
  • इसीलिए देश के एक बड़े भूभाग में भूजल का स्तर बहुत ही नीचे जा चुका है।
परन्तु यह ध्यान रखने वाली बात है कि सूखे की ऐसी प्राणघातक परिस्थिति भारत में प्राचीनकाल में कभी नहीं आई।
सूखा तो पहले भी पड़ता था, किन्तु उस कालखंड में जल की व्यवस्था एवं नियोजन उत्तम था। बल्कि यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि हमारे देश में जल का नियोजन उत्कृष्ट था, इसीलिए हमारा देश ‘सुजलाम सुफलाम’ कहलाता था...! 

जल संसाधन का नियोजन कितना अच्छा होना चाहिए? 

1- अनईकट्टू या कलानाई बाँध (Grand Anicut dam)

तो, भारत में कितने लोग यह बात जानते हैं कि विश्व का पहला ज्ञात और आज भी उपयोग किया जाने वाला बाँध भारत में है? ईस्वी सन दूसरी शताब्दी में चोल राजा करिकलन द्वारा बनाया गया ‘अनईकट्टू’ अथवा अंग्रेजी भाषा में ‘ग्रांड एनीकट’ (Grand Anicut) अथवा आधुनिक भाषा में कहें तो ‘कलानाई बाँध’, ही वह बाँध है, जिसका पिछले अठारह सौ वर्षों से लगातार उपयोग किया जा रहा है। आज के जमाने में, जब बनाए जाने वाले बाँधों में तीस-पैंतीस वर्ष के बाद ही दरारें पड़ने लगती हैं, वहाँ लगातार अठारह सौ वर्षों तक कोई बाँध उपयोग में रहे, क्या यह अदभुत आश्चर्य नहीं है? 
चोल राजा करिकलन द्वारा बनाया गया ‘अनईकट्टू’ अथवा अंग्रेजी भाषा में ‘ग्रांड एनीकट’ (Grand Anicut) अथवा आधुनिक भाषा में कहें तो ‘कलानाई बाँध’,
1800 वर्ष पुराना कलांनाई बांध
कावेरी नदी के मुख्य प्रवाह क्षेत्र में निर्माण किया गया यह बाँध ३२९ मीटर लंबा और २० मीटर चौड़ा है। त्रिचनापल्ली से केवल १५ किमी दूर स्थित यह प्राचीन बाँध कावेरी नदी के डेल्टा प्रदेश में बनाया गया है।
अंग्रेजों ने भी इस बाँध पर अपना अंग्रेजी ज्ञान लगाने का प्रयास किया, परन्तु सफलता नहीं मिली। अत्यंत ऊबड़खाबड़ पथरीले प्रदेश में निर्मित इस बाँध को देखकर निश्चित रूप से यह प्रतीत होता है कि उस प्राचीन-काल में भी बाँध निर्माण की तकनीक और विज्ञान उत्तम रूप से विकसित था। क्योंकि यह बाँध प्रायोगिक रूप से नहीं बनाया गया था, वरन कुशल एवं अनुभवी अभियंताओं ने नदी के मुख्य प्रवाह में पूरे अनुभव के साथ बनाया हुआ है।
ज़ाहिर सी बात है कि भारत में बाँध निर्माण करने अर्थात ‘जल-व्यवस्थापन एवं नियोजन’ की तकनीक बहुत-बहुत प्राचीन है। आगे चलकर तमाम विदेशी आक्रमणों के कारण इस प्राचीन बाँध शास्त्रों के प्रमाण नष्ट हो गए, और अब केवल इतिहास में कलानाई बाँध जैसा शानदार उदाहरण ही बचा रह गया। 

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विश्व के इतिहास में देखा जाए तो ऐसे प्राचीन बाँध निर्माण के कई उल्लेख प्राप्त होते हैं। नाईल नदी पर कोशेश नामक स्थान पर ईस्वी सन से २९०० वर्ष पहले १५ फुट ऊँचा निर्माण किया गया बाँध सबसे प्राचीन बाँध माना जाता है, परन्तु आज वह अस्तित्त्व में नहीं है। संभवतः इतिहासकारों ने इस बाँध को कभी देखा नहीं है, केवल इस बाँध का उल्लेख ही मिलता है। 
इजिप्त में ईसा-पूर्व २७०० वर्ष पहले नाईल नदी पर बने बाँध के कुछ अवशेष जरूर आज भी देखने को मिलते हैं। इस बाँध का नाम साद-अल-कफारा (Sadd-el-Kafara) रखा गया था। काहिरा से लगभग तीस किमी दूरी पर यह बाँध बनाया गया था, परन्तु यह जल्दी ही धराशायी हो गया था।
इस कारण अगली अनेक शताब्दियों तक इजिप्त के लोगों की हिम्मत नहीं हुई कि वे पुनः कोई बाँध बनाएँ। इसी प्रकार चीन में भी ईसा-पूर्व २२८० वर्ष पहले बाँध निर्माण के उल्लेख मिलते हैं। परन्तु वर्तमान में उपयोग किया जा सकने वाला एक भी प्राचीन बाँध पूरी दुनिया में कहीं भी दिखाई नहीं देता। 
बाँध का नाम साद-अल-कफारा (Sadd-el-Kafara) रखा गया था।
परन्तु भारत में कलानाई बाँध के पश्चात बनाए गए अनेक प्राचीन बाँध आज भी कार्यरत हैं। ईस्वी सन ५०० से १३०० के बीच दक्षिण भारत में पल्लव राजाओं द्वारा निर्माण किए गए मिट्टी के अनेक बाँध आज भी काम कर रहे हैं। सन १०११ से १०३७ के बीच तमिलनाडु में बनाए गए वीरनाम बाँध का एक उदाहरण हमारे सामने है। 
पाटन में निर्माण की गई ‘रानी का वाव’ नामक बावड़ी (राजशाही कुआँ) आज यूनेस्को के संरक्षित स्मारकों की सूची में शामिल है

2- पाटन में ‘रानी का वाव’

पानी का प्रबंधन, व्यवस्थापन इत्यादि के सन्दर्भ में निर्माण की गई अनेक वास्तु रचनाएँ आज भी भारत में अस्तित्त्व में हैं। प्राचीन समय में गुजरात की राजधानी रही पाटन में निर्माण की गई ‘रानी का वाव’ नामक बावड़ी (राजशाही कुआँ) आज यूनेस्को के संरक्षित स्मारकों की सूची में शामिल है। भूगर्भीय जल के संचय एवं संरक्षण का यह एक अत्यंत उत्तम उदाहरण है। ईस्वी सन १०२२ से १०६३ के बीच निर्मित की यह सात मंजिला बावड़ी आज भी अच्छी स्थिति में है।
सोलंकी राजवंश की रानी उदयामती ने अपने पति भीमदेव की स्मृति में इस बावड़ी का निर्माण की थी। यह वही कालखंड था, जब सोमनाथ पर महमूद गजनी ने आक्रमण किया था। इस बावड़ी के निर्माण के कुछ वर्षों पश्चात गुजरात मुस्लिम शासकों के कब्जे में चला गया। इस कारण अगले ७०० वर्षों तक यह राजशाही बावड़ी कीचड़ और गन्दगी के बीच उपेक्षित ही रही...!
अर्थात भूजल की व्यवस्था एवं संरक्षण के बारे में भारत को बहुत पहले से ही परम्परागत ज्ञान था, यह तो निश्चित ही है। 


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"पंचमहाभूतों के मंदिरों" से पहले लिखे गए एक लेख एवं सम्बन्धित लेखमाला में इसका उल्लेख आ चुका है। उसमें ‘जल’ संबंधी उल्लेख एवं जल-व्यवस्थापन की जानकारी प्राचीनकाल से ही भारतीयों को है, इस बारे में अनेक प्रमाण आपके समक्ष रखे जा चुके हैं। ऋग्वेद में और यजुर्वेद में भी हमें पानी के संरक्षण संबंधी अनेक सूक्त दिखाई देते हैं। धुलिया के श्री मुकुंद धाराशिवकर ने इस विषय पर गहन अध्ययन करते हुए लेखन किया है। उन्हीं ने प्राचीन जल व्यवस्थापन के बारे में स्व. गो.ग. जोशी का भी उल्लेख किया है। तारापुर स्थित वरिष्ठ अभियंता रहे जोशी जी का प्राचीन शास्त्रों के बारे में अच्छा-खासा ज्ञान था एवं रूचि थी। 
‘स्थापत्य वेद’ को अथर्ववेद का ही उप-वेद माना जाता है। दुर्भाग्य से इसकी एक भी प्रति भारत में उपलब्ध नहीं है। यूरोप के ग्रंथालयों में ही इस वेद की कुछ प्रतियाँ मिलती हैं। इसके परिशिष्टों में तडाग विधि (जलाशय निर्माण) के बारे में सम्पूर्ण जानकारी दी गई है।
मुकुंद धाराशिवकर ने एक और ग्रन्थ का उल्लेख किया है, दुर्भाग्य से जिसका नाम भी हमें मालूम नहीं है। चूँकि उसका केवल अंतिम पृष्ठ ही उपलब्ध है, इसलिए यह भी ज्ञात नहीं कि इसका लेखक कौन है। ‘अथ जलाशय प्रारम्यते...’ इस पंक्ति से आरम्भ होने वाले ग्रन्थ में दीवार बनाकर जलाशय कैसे निर्माण किया जाए, इस बारे में विस्तार से वर्णन किया गया है। यह ग्रन्थ २८०० वर्ष पहले का माना जाता है। 
कृषि पाराशर, कश्यप कृषि सूक्त, छठवीं शताब्दी में लिखे गए ‘सहदेव भालकी’ इत्यादि ग्रंथों में पानी के संचय, पानी के वितरण, बारिश का अनुमान, तालाब निर्माण इत्यादि के बारे में विस्तार से जानकारी दी गई है। 
  "नारद शिल्पशास्त्र (Nārada Śilpaśāstra) एवं भृगु शिल्पशास्त्र (Bhrigu shilpa samhita)" में समुद्री किलों, नदी में स्थित किलों जैसे विषयों से लेकर इन किलों में पानी के संचय, वितरण एवं खराब पानी की व्यवस्था के बारे में गहराई से विवेचन किया गया है। भृगु शिल्पशास्त्र में पानी के दस गुणधर्म बताए गए हैं। अलबत्ता पाराशर मुनि ने प्रतिपादित किया है कि पानी के उन्नीस गुणधर्म होते हैं। पानी के बारे में वेदों एवं विविध पुराणों में अनेक उल्लेख आते हैं। विशिष्ट परिस्थिति में जल का नियोजन कैसे किया जाए, इस बारे में भी विस्तार से जानकारी मिलती है। 
सन २००७ में योजना आयोग ने विशेषज्ञों द्वारा लिखित ‘ग्राउंड वाटर मैनेजमेंट एंड ओनरशिप’ की एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी। इंटरनेट पर भी यह उपलब्ध है। मोंटेकसिंह अहलूवालिया ने इसकी प्रस्तावना लिखी है। इस रिपोर्ट के शुरुआत में ही पानी के बारे में ऋग्वेद की एक ऋचा का उल्लेख किया गया है – 
The waters of sky 
The waters of rivers, 
And water in the well, 
Whose source is the ocean 
May all these sacred waters protect me.. 
इसके पश्चात रिपोर्ट लिखने का आरम्भ करते समय प्राचीन भारतीय शास्त्रों के अनुसार पानी की व्यवस्था एवं मैनेजमेंट कितना वैज्ञानिक था, इस बात का भी विवेचन किया गया है।  

3- ‘वराहमिहिर’ के ‘बृहत्संहिता’ में जल संचय 

जल के व्यवस्थापन के बारे में अत्यंत विस्तार से विवेचन किया है, ‘वराहमिहिर’ ने। यह ऋषि उज्जैन में रहते थे। उस समय उज्जैन के महाराजा सम्राट विक्रमादित्य थे। वराहमिहिर ने सन ५०५ के आसपास विविध विषयों पर अपना अभ्यास एवं शोध आरम्भ किया, और सन ५८७ में उनकी मृत्यु हुई। अर्थात लगभग अस्सी वर्ष वराहमिहिर ने अपनी ज्ञान-साधना में व्यतीत किए। 
वराहमिहिर का प्रमुख कार्य है उनके द्वारा लिखित ‘बृहत्संहिता’ नामक ज्ञानकोष। इस ज्ञान कोष में उदकार्गल (अर्थात पानी का संचय) नामक ५४ वाँ अध्याय है। १२५ श्लोकों के इस अध्याय में वराहमिहिर ने जो जानकारी दी है, वह अदभुत है, अक्षरशः चमत्कृत कर देने वाली है। 
भूगर्भ में पानी की खोज कैसे की जा सकती है, इस सम्बन्ध में इसमें अनेक श्लोक हैं, जो हमें आज भी चकित कर देते हैं। वराहमिहिर ने जमीन की गहराई में स्थित पानी की खोज करते समय मुख्यतः तीन बातों का निरीक्षण करने पर जोर दिया है। इस निरीक्षण में उस भूभाग पर उपलब्ध पेड-पौधें, उन पेड-पौधों के आसपास स्थित बाम्बियाँ, उन बाम्बियों की दिशा, उन बाम्बियों में रहने वाले प्राणी, उस जमीन का रंग इत्यादि बातों का समावेश है। वराहमिहिर का कहना है कि इन निरीक्षणों के आधार पर जमीन के भीतर उपलब्ध पानी की खोज निश्चित रूप से होती है। ध्यान दें, कि डेढ़ हजार वर्ष पहले, जबकि कोई आधुनिक संसाधन नहीं थे, फिर भी वराहमिहिर मजबूती से यह बात सप्रमाण रखते हैं। 
यह खोज करते समय वराहमिहिर ने आजकल के वैज्ञानिकों की तरह महत्त्वपूर्ण बातों को अपने शोध में लिपिबद्ध किया। उन्होंने लगभग पचपन वृक्षों एवं वनस्पतियों का अभ्यास करते हुए अपने मत रखे। इसी प्रकार उन्होंने मिट्टी का भी वर्गीकरण बड़े विस्तार से किया है। इन सभी निरीक्षणों का निष्कर्ष भी उन्होंने लिख रखा है। 
उनमें से कुछ इस प्रकार हैं –
  1. बहुत सी शाखाओं वाले तथा तैलीय छाल वाले छोटे पेड पौधे हों, तो वहां पानी मिलता है। 
  2. गर्मी के दिनों में यदि जमीन से भाप निकलती दिखाई दे, तो उस जमीन में पानी है। 
  3. किसी वृक्ष की एक ही डाली जमीन की तरफ झुकी हुई हो, तो उस स्थान पर पानी मिलने की संभावना होती है। 
  4. जब गर्मी के दिनों में जमीन गर्म हो रही हो, लेकिन एकाध स्थान पर जमीन ठण्डी हो, तो वहाँ भी पानी की मौजूदगी होती है। 
  5. यदि किसी कांटेदार पेड-पौधे के काँटे भोथरे हो गए हों, तो उस स्थान पर निश्चित ही पानी की प्राप्ति होती है। 
‘बृहत्संहिता’ के उदकार्गल का निरीक्षण 
ऐसे अनेक निरीक्षण उन्होंने अपने ज्ञानकोष में लिख रखे हैं। मजेदार बात यह की वराहमिहिर के यह प्रतिपादन सच्चे हैं या झूठे, अथवा कितने वैज्ञानिक हैं, यह सिद्ध करने के लिए आंध्रप्रदेश के तिरुपति स्थित श्रीवेंकटेश्वर विश्वविद्यालय ने लगभग पन्द्रह-सोलह वर्ष पहले इन निरीक्षणों के आधार पर वराहमिहिर के इन दावों के अनुसार कुँए खोदकर (बोअर लेकर) परीक्षण करने का फैसला किया। उन्होंने वराहमिहिर के ग्रन्थ के आधार पर जो योग्य स्थान होते हैं, ऐसे लगभग ३०० स्थानों का चयन किया और उन सभी स्थानों पर बोरिंग मशीन से खुदाई की। आश्चर्य की बात यह है कि ९५% स्थानों पर उन्हें पानी प्राप्त हुआ। अर्थात वराहमिहिर का निरीक्षण एकदम सटीक था, यह सिद्ध होता है। परन्तु दुर्भाग्य से यह परियोजना सरकारी लालफीताशाही में उलझ गई और जनता तक नहीं पहुँच सकी। 
पानी के मैनेजमेंट संबंधी अनेक उदाहरण हमें अंग्रेजों का शासन आने से पहले ही विभिन्न स्थानों पर दिखाई देता है। पेशवाई के बाद औरंगाबाद में निर्मित ‘थत्ते नहर’ हो, अथवा पुणे में पानी का वितरण करने वाली पेशवाकालीन रचनाएँ हों। जल के परिवहन हेतु पाँच सौ वर्ष पुरानी रचना आज भी बुरहानपुर में अस्तित्त्व में है। इसी प्रकार पाँच सौ वर्ष पुरानी पंढरपुर-अकलूज मार्ग पर स्थित बेलापुर गाँव में सातवाहन कालीन निर्माण की गई नहर हो अथवा ‘समरांगण सूत्रधार’ नामक ग्रन्थ के आधार पर राजा भोज द्वारा निर्मित भोपाल का तालाब हो...। ऐसे अनेकानेक उदाहरण दिए जा सकते हैं। 
पाटन में निर्माण की गई ‘रानी का वाव’ नामक बावड़ी (राजशाही कुआँ) आज यूनेस्को के संरक्षित स्मारकों की सूची में शामिल है
(नोट: ‘समरांगण सूत्रधार’ यहाँ से डाउनलोड करे!)
गढा-मंडला (जबलपुर संभाग) एवं चंद्रपुर क्षेत्र में प्राचीनकाल में गोंड राजाओं का शासन था। मुग़ल हों, आदिलशाही हों, अथवा कुतुबशाही हों, कोई भी इन गोंड राजाओं को नहीं हरा पाया था। परन्तु फिर भी हमारे देश में इस भूभाग को पिछड़ा हुआ माना गया, जबकि वास्तव में स्थिति ऐसी नहीं थी। एक बहुत ही उत्तम हिन्दी पुस्तक है– ‘गोंडकालीन जल-व्यवस्थापन’। इस पुस्तक में लगभग ५०० से ८०० वर्ष पूर्व गोंड साम्राज्य में पानी का कितना उत्कृष्ट व्यवस्थापन था इसका वर्णन किया गया है। इस जल नियोजन का लाभ यह हुआ कि किसी भी सूखे के समय अथवा अल्पवर्षा के समय इस गोंड प्रदेश को कभी भी कोई कष्ट नहीं हुआ। 
हमारे जबलपुर शहर में गोंड रानी दुर्गावती के कालखंड में (अर्थात ५०० वर्ष पूर्व) ‘बावनताल और बहत्तर तलैया’ निर्माण किए गए (तलैया अर्थात छोटे तालाब)। यह तालाब केवल यूँ ही नहीं खोद दिए गए थे, बल्कि जमीन की स्थिति एवं ‘कंटूर’ के अनुसार उनकी रचना की गई है। कुछ तालाब तो अंदर ही अंदर आपस में एक-दूसरे से जुड़े हुए भी थे। इनमें से अधिकाँश तालाब अब समाप्त हो चुके हैं, लेकिन बचे हुए तालाबों के कारण ही जबलपुर नगर में आज भी भूजल का स्तर काफी ऊँचा बना हुआ है और यहाँ पर पानी की कोई कमी नहीं दिखाई देती। अब विचार कीजिए कि उस कालखंड में खेती और पर्यावरण कितना समृद्ध रहा होगा...! 
इसका साफ़ अर्थ है कि, हमारे पास प्राचीनकाल से ही पानी का महत्त्व, पानी की खोज एवं पानी के नियोजन-व्यवस्थापन के बारे में सम्पूर्ण रूप से विकसित वैज्ञानिक पद्धति उपलब्ध थी। कुछ हजार वर्षों तक निरंतर प्रभावी तरीके से हम उसका उपयोग भी करते रहे, इसीलिए यह देश सुजलाम-सुफलाम था। 
परन्तु हमारे बीच ही अनेक लोग ऐसे हैं, जिनके मनोमस्तिष्क पर अंग्रेजों एवं अंग्रेजी का इतना जबरदस्त प्रभाव है कि उनकों आज भी यही लगता है कि भारत देश को पानी का महत्त्व सिखाने वाले अंग्रेज ही थे। बाँध बनाने की कला हमें अंग्रेजों ने ही सिखाई...! 
दुर्भाग्य से हम अपनी प्राचीन जल व्यवस्था एवं नियोजन को भूल गए हैं और आज पानी के लिए त्राहि-त्राहि करते हैं, धारा १४४ लगानी पड़ रही है, पानी के लिए युद्ध लड़ने जा रहे हैं..!! हम अपने ही समृद्ध ज्ञान, विरासत, परंपरा एवं तंत्र को यदि बिसरा देंगे, तो यह स्थिति आगे भी बनी रहेगी, यह अटल सत्य है...!!

प्रशांत पोळ

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