ज्ञानवापी मंदिर 5 गुम्बदों वाला तीर्थस्थल था! जो तीसरी बार बना था! ASI REPORT about GYANVAPI

ज्ञानवापी में ASI (Archaeological Survey of India) के साइंटिफिक सर्वे की रिपोर्ट में तेलुगु, कन्नड़, देवनागरी, अरेबिक, पर्शियन भाषा और लिपि में कुल 34 अभिलेख मिले हैं। इन अभिलेखों में 14 लोगों के नाम हैं। वहीं, शिव के 3 नाम अलग से पढ़े गए। रिपोर्ट में अभिलेख संख्या 6, जिसमें 5 लाइन में तेलुगु स्क्रिप्ट लिखा है। ये 17वीं सदी का है। 

   इसके अलावा एक सिक्के पर, मंदिर के उत्तर में मुख्य द्वार के पास और उत्तर की ओर तेलुगु में लिखे अभिलेख मिले हैं। इनमें से केवल एक ही अभिलेख को  पढ़ा गया है। बाकी के अभी तक पढ़े नहीं गए हैं, क्योंकि लिखावट स्पष्ट नहीं है। हालांकि, एक स्क्रिप्ट थोड़ी पढ़ी गई है, जिस पर लिखा है 'आन वि (ए) तिन गोवि।' मगर, इसका अर्थ कुछ भी नहीं निकल रहा है।

अभिलेख संख्या 6 मिले हैं दो नाम

    अभिलेख संख्या 6 को ASI ने अनुवाद किया है। इस पर नारायण भट्लू और माल्लाना भट्टलू का नाम लिखा है। नारायण भट्लू या नारायण भट्ट दक्षिण भारत के सुप्रसिद्ध ब्राह्मण विद्वान थे। 15वीं सदी में इनके पिता काशी आ गए थे। नारायण ने ही 1585 में मुगल शासक अकबर के वित्त मंत्री टोडरमल से कुछ रुपए लेकर विश्वेश्वर मंदिर का विधि पूर्वक निर्माण कराया था। 

   यह तीसरी बार था जब मंदिर का निर्माण हुआ, इससे पहले दो बार शर्की और सिकंदर लोदी द्वारा मंदिर तोड़ा गया था। अब लोगों को हैरानी यह है कि नारायण भट्ट और उनके बेटे का नाम तेलुगु में क्यों लिखा गया है जबकि, उनका संबंध काशी और महाराष्ट्र से है!

हनुमान जी मूर्ति ज्ञानवापी मस्जिद में प्राप्त हुई

हैदराबाद के निजाम-कृष्ण देव राय से था पिता का संबंध

    मंदिर में पंडित नारायण भट्ट महाराष्ट्र से थे। दक्षिण भारत के प्रकांड विद्वान थे। उनका नाम तेलुगु में मिलना कोई अचंभित करने वाली बात नहीं है। क्योंकि, रमेश गोकर्ण द्वारा संपादित किताब 'काशी सर्व प्रकाशिका' के अनुसार नारायण भट्ट के पिता पैठन, महाराष्ट्र के निवासी थे।

   बहरहाल, हम बात करते हैं ‘आदि विश्वेश्वर मंदिर’ की और उससे बनाने वाले विद्वान पंडित नारायण भट्ट की....

   सुप्रसिद्ध इतिहासकार मोतीचंद द्वारा लिखित 'काशी का इतिहास' किताब में भी नारायण भट्ट के नाम से मंदिर बनने का जिक्र है। दिवाकर भट्ट ने अपनी किताब 'दानहारावली' में लिखा है- 

"श्रीरामेश्वरसूरि सूनूभवनारायणख्यो महान। 

येनाकार्य विमुक्तकै सुविधाना विश्वेश्वरास्थापना"। 

यानी कि रामेश्वर भट्ट के पुत्र नारायण भट्ट ने अविमुक्त क्षेत्र वाराणसी में विधिपूर्वक विश्वेश्वर की स्थापना की।

ज्ञानवापी मस्जिद का पिछला हिस्सा जिसमे मंदिर की दीवार दिख रही है।

मुंगेर के युद्ध के बाद टोडरमल को मिला नक्शा

   जहां ज्ञानवापी है, वहां पर मंदिर बनने की पहली पटकथा 1580 ईसवी में मुंगेर के युद्ध में लिखी गई। मुंगेर में दाऊद खां को परास्त करने के बाद अकबर के सेनापति मान सिंह और वित्त मंत्री टोडरमल बनारस आए। यहां पर नारायण भट्ट से मुलाकात हुई। नारायण भट्ट ने टोडरमल को विश्वेश्वर मंदिर का पुराना नक्शा दिखाया। प्रो. पीबी सिंह कहते हैं जयपुर स्थित सवाई मान सिंह की वेधशाला में एक नक्शा रखा हुआ है, जिस आधार पर भट्ट ने मंदिर बनवाया था।।

   बहरहाल, नारायण भट्ट ने टोडरमल को मंदिर का इतिहास भी बताया। बताया कि 2 बार शर्की वंश के राजा और सिकंदर लोदी के द्वारा मंदिर को पूरी तरह से तोड़ दिया गया था। बाद में नारायण भट्ट ने अपने ग्रंथ 'त्रिस्थली केतु' (रचनाकाल 1585) में पेज नंबर 208 पर मंदिर विध्वंस का जिक्र भी किया।

    मंदिर विध्वंस का 'त्रिस्थली केतु' में उन्होंने पूरा एक श्लोक ही लिखा है...

"त्रित्वं तथा मुख्य विश्वेश्वरज्योर्तिलिंगाभवेअपि तटस्थानस्थिते लिंगातरे पूजादि कार्यम्। यद्यपि मलेच्छादिदुष्ट राजवंशा......."

   इसका अर्थ है कि कई बार काफी शिवलिंग हटा दिए गए। बार-बार नए शिवलिंग को रखकर पूजा करनी पड़ती थी। मलेच्छों द्वारा यदि मंदिर नष्ट कर दिया गया हो तो खाली जगह की ही पूजा की जा सकती थी। 

ज्ञानवापी मस्जिद में प्राप्त हुई देव विग्रह

    नारायण भट्ट ने जिन मलेच्छों की बात कही है, उनमें कई मुस्लिम बादशाहों की बात की है, जिन्होंने बार-बार शिवलिंग को तोड़वाया-हटवाया।

    मोतीचंद द्वारा लिखित 'काशी का इतिहास' किताब के अनुसार, सबसे पहले आदि काशी विश्वेश्वर, जिसे 1194 में कुतुबुद्दीन ने तोड़ा। मंदिर बनते ही 1447 में जौनपुर के सुल्तान महमूद शाह शर्की ने फिर तोड़वा दिया। इसके बाद अकबर के काल 1585 में राजा मान सिंह और वित्त मंत्री टोडरमल द्वारा नारायण भट्ट की मदद से सामने ही काशी विश्वेश्वर मंदिर बना। जिसे 1669 में औरंगजेब द्वारा मंदिर ढहाकर ज्ञानवापी मस्जिद बनाई गई। 

नंदी के सामने बजुखाना, जिसमे शिवलिंग स्थित है। 

मुगलकाल की सबसे बड़ी घटना विश्वेश्वर मंदिर बनवाना-तोड़वाना

   मोतीचंद लिखते हैं, अकबर के काल में टोडरमल का बनारस से काफी गहरा लगाव था। विश्वेश्वर मंदिर के बाद वाराणसी के शिवपुर में ही 1586 में टोडरमल द्रौपदी कुंड की स्थापना कर दी थी। इसे नारायण भट्ट के पुत्र गोविंद दास ने बनवाया। टोडरमल के नाम से बनारस के कई मंदिरों का निर्माण उनके बेटे गोवर्धन ने कराया था। मोती चंद के अनुसार, बनारस के मुगलकालीन धार्मिक इतिहास में सबसे प्रसिद्ध घटना अकबर के राज्यकाल में विश्वनाथ मंदिर की पुनर्स्थापना थी। वहीं, औरंगजेब के समय मंदिर को तोड़वाना भी था।"

दीवार पर बने स्वस्तिक के निशान

300 साल तक भट्ट परिवार काशी में रहा

   नारायण भट्ट का जीवन काल 81 साल का रहा। 1514 ईसवी से 1595 ईसवी तक। उनका पूरा जीवन विश्वेश्वर मंदिर के लिए ही समर्पित रहा। नारायण भट्ट के पिता महाराष्ट्र के नारायण निवासी थे। नारायण भट्ट का जन्म 1514 ईसवी में हुआ। द्वारिका यात्रा के दौराप रामेश्वर भट्ट काशी आए थे। यहीं के हो गए। उनके तीनों बेटों का विवाह काशी में ही हुआ। मोतीचंद लिखते हैं कि नारायण भट्ट का परिवार 300 साल तक काशी में ही रहा।

   नारायण भट्ट ने भारत के कई पंडितों के साथ शास्त्रार्थ किया था। इसमें वो हमेशा विजयी हुए। उनके शिष्यों में ब्रहेंद्र सरस्वती, नारायण सरस्वती, उपेंद्र शर्मा, मधुसूदन सरस्वती और नवद्वीप विद्यानंद आदि। नारायण भट्ट ने धर्म प्रकृति और प्रयोग रत्न नाम के 2 ग्रंथ स्मृतियां और वृत्त रत्नाकर ग्रंथ पर सुप्रसिद्ध नारायणी टीका लिखा। उनके कुल 28 ग्रंथों की जानकारी मिलती है।

ताखे में बनी हुई विग्रह को नष्ट किया गया है।

औरंगजेब से पहले नहीं थी कोई मस्जिद- मोतीचंद

   औरंगजेब के पहले विश्वेश्वर मंदिर के जगह कोई मस्जिद नहीं बनी थी। ज्ञानवापी का 125X18 फीट नाप का पूरब की ओर का चबूतरा 14वीं सदी में बना विश्वेश्वर मंदिर का ही हिस्सा है। प्राचीन मंदिर में 5 मंडप थे। पूरब की ओर पांचवें मंडप का साइज 125X35 फीट था। यह रथ मंडप था। यहां पर धार्मिक उपदेश होते थे। टोडरमल ने मंडप की मरम्मत करा दी। मंदिर की कुर्सी 7 फीट ऊंची उठाकर सड़क के बराबर कर दी गई।

   ASI सर्वे रिपोर्ट के अनुसार, ज्ञानवापी के अंदर कुल 17 लोगों के नाम मिले हैं, जिनमें 3 नाम शिव के ही हैं। इसमें मराठा साम्राज्य के शंभाजी का भी नाम है।

निरीक्षण करते हुए ASI के अधिकारी

कन्नड़-नागरी लिपि में 2 मुख्य अभिलेख

   कन्नड़ में एक अभिलेख है, जिस पर दो नाम हैं दोडसय्यन और नरसंणनभिनह। यह 16वीं शताब्दी का अभिलेख है। अभी तक ये किन के नाम हैं, यह स्पष्ट नहीं हो पाया है। अभिलेख संख्या 5 पर नागरी में शंभाजी और सोनाजी के नाम लिखे हैं। ये 17वीं सदी का है। ये दोनों नाम मराठा साम्राज्य से जुड़ा है।

कुल 14 नामों को यहां पर लिखा गया है.....

1. सजाल्ला

2. आर्यवती

3. शंभाजी

4. सोनाजी

5. मल्लाना भटलू

6. नारायण भटलू

7. जीवांतदेवा

8. नारायण रमन

9. पद्मविता मालावीधारा

10. रघुनाथ

11. डोडारासाया

12. नरसिम्हा

13. कासी

14. कान्हा

   जनार्दन, रुद्र और उमेश्वरा, तीन जगह पर महामुक्तिमंडपम लिखा गया है।


 


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