"1९४७ से हमे पढाया गया है कि भारत को आज़ादी गाँधीजी और नेहरू ने दिलवायी। त्याग, सत्य और अहिंसा के मार्ग में चलकर हम स्वतंत्र हुए हैं। किन्तु स्वतंत्रता संग्राम में कितनों ने माँ भारती के पदतल में प्राणों को न्योछावर किया, इसे हमें पढाया नहीं जाता। केवल गाँधीजी और नेहरू के गुण गाये जाते हैं"
भारत मे आमतौर पर गांधीजी द्वारा कहे गए उद्धरण (Quote) कहे-सुने और पढ़े जाते है। जैसे :-
"हमारे परिसर में एक ग्राहक सबसे महत्वपूर्ण आगंतुक है, वह हमारे ऊपर निर्भर नहीं है, हम उस पर निर्भर हैं । वह हमारे काम का एक रुकावट नहीं है, वह उसका कारण था। वह हमारे व्यवसाय का बाहरी व्यक्ति नहीं हैं। वह इसका एक हिस्सा है। हम उसकी सेवा करके उसपर एक एहसान नहीं कर रहे हैं, वह हमें ऐसा करने का मौका देकर हमपर एक एहसान कर रहा है।"
निश्चित रूप से गांधीजी का सर्वव्यापी छवि चरखा कताई करने की ही है। लेकिन क्या सरकार और शासक वर्ग जिसकी दुकानदारी गांधीजी की महिमा मंडन करने में, महात्मा के रूप में बढ़ावा देने से चलती है, गांधीजी द्वारा कहे गए भयावह वाक्यो को स्वतंत्र रूप से कह सकते है? या गांधीजी द्वारा कहे गए कुछ असुविधाजनक “राय” स्कूल के पाठ्यक्रम में शामिल हैं?
भारतीय होने के नाते, हर भारतीय को यह हक है कि वे अपने देश से जुडे हर सत्य से अभिज्ञ हो। इतिहास को जानने की ज़िम्मेदारी के साथ-साथ अपनी पिछली त्रुटियों से पाठ भी पढ्ना चाहिए और आगे इस प्रकार के त्रुटि ना हॊ इस बात का भी खयाल रखना अवश्यक है।
1९४७ से हमे पढाया गया है कि भारत को आज़ादी गाँधीजी और नेहरू ने दिलवायी। त्याग, सत्य और अहिंसा के मार्ग में चलकर हम स्वतंत्र हुए हैं। किन्तु स्वतंत्रता संग्राम में कितनों ने माँ भारती के पदतल में प्राणों को न्योछावर किया, इसे हमें पढाया नहीं जाता। केवल गाँधीजी और नेहरू के गुण गाये जाते हैं।
जिस गाँधीजी को महात्मा बताते हैं, उनके ही द्वारा कही या लिखी गयी कुछ ऐसे विचार हैं, जो भारत के स्वतंत्रता संग्राम में जिन्होंने अपने जान गवायें, उन को लज्जित कर देगा।
१९३२ मे चली नागरिक अवज्ञा आंदोलन को अंत करने के लिये गाँधी-इर्विन पेक्ट पर गाँधीजी ने हस्ताक्षर किया था। जिसमें उन्होंने लिखा, ”गाँधी, काँग्रेस को कभी ऐसा काम नहीं करने देगा, जिससे ब्रिटिश सरकार या ब्रिटिश साम्राज्य को किसी भी तरह का नुक्सान पहुँचेगा”।
१९१५ में भारत लौटते ही जो पहला काम उन्होने किया वो था प्रथम विश्वयुद्ध के लिये भारतीय सैनिकों की नियुक्ति करवाना। करीब १ लाख भारतीय सैनिकों की नियुक्ति ब्रिटिश सैन्य मे करवाया, जिसके लिये उन्हे केसर-ए-हिंद उपाधि से पुरस्कृत किया।
विडंबना है कि इसी गाँधी जी ने यह कहते हुए असहयोग आंदॊलन को बर्खास्त किया था कि “भीड द्वारा पुलिसों को जलाये जाने से वे अत्यंत आहत हुए हैं!” लेकिन जब प्रथम विश्वयुद्ध में भारतीय सैनिक शहीद हॊ रहे थे तब वे आहत नहीं थे। इतना दोगलापन व्यक्तित्व में फिर भी महात्मा?
जब बंगाल में नोअखली नरसंहार हॊ रहा था तब उन्होंने हिन्दुओं से कहा कि “या तो नोअखली छॊडॊ या मर जाओ”। मुसलमानों द्वारा किया गया खिलाफत आंदोलन के समय भी वे मुसलमानों के पक्ष में खडे हॊ गए। मोपला दंगे (मालाबार में) में हजारों हिन्दुओ को मौत के घात उतार दिया गया था, हजारो को बलात धर्म परिवर्तन करवाया गया था, हिन्दू महिलाओं का बलात्कार किया गया था। उस समय भी उन्होंने कहा था कि “हिन्दुओं कॊ इस हठधर्मी विस्फोट को साहस और आस्था से झेलने का धैर्य प्रदर्शन करना चाहिये।”
भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू के फाँसी के बारे मे उनसे पूछा गया तो उन्होंने कहा “सरकार को उन्हे फाँसी देने का पूरा अधिकार है”। उन्होंने स्वयं को सही साबित करते हुए कहा था कि, “भगत सिंह जीना नहीं चाहते थे और क्षमाप्रार्थी भी नहीं थे। और अपने मौत के लिये वे स्वयं ही ज़िम्मेदार है।”
सदा सत्य बॊलने का प्रवचन देने वाले महात्मा ने “अहिंसा परमों धर्मा:” का नारा तो कह दिया। लेकिन उसके आगे की पंक्ती को जनता से छुपाया। “अहिंसा परमों धर्मः! धर्मो हिंसा तथैव च!!” अर्थात: सत्य, न्याय और धर्म की रक्षा के लिये शत्र उठाना भी धर्म ही है। यही गीता का सार है। केवल इतना ही नहीं उनके व्यक्तिव में कई सारे विपरीत स्वाभाव भी प्रामाणित है। सावरकर, सुभाष चंद्र बॊस, सरदार वल्लभ भाई पटेल के साथ क्या हुआ था उससे वे अनभिज्ञ तो नहीं थे।
महिलाओं के ऊपर होने वाले अत्याचार के बारे मे उनकी राय लज्जित कर देने वाली है। उनका मानना था कि “औरत के अनुमति के सिवाए कोई उसका बलात्कार नहीं कर सकता। कॊई भी औरत अपने गरिमा कॊ अपने सहमती के बिना नहीं खो सकती। शारीरिक रूप से वह बलात्कारी का सामना नहीं कर सकती तो उसे अपनी पवित्रता का उपयोग करना चाहिये। उसकी पवित्रता देख पुरुष नत मस्तक हॊ जायेगा!”
भारत के विभाजन से पहले जब मुसलमानो द्वारा हिन्दु और सिख महिलाओं का बलात्कार हो रहा था तो उन्होंने महिलाओं कॊ नसीहत दी कि “अगर मुसलमान उनका बलात्कार करना चाहे तो उन्हे करने देना चाहिए। महिलायें अपनी जिव्हा अपने दाँतों तले दबाये और मृत व्यक्ति की तरह लेटी रहे। इससे बलात्कारी मुस्लिम जल्दी खुश हॊ जायेंगे और उन्हे छोड़ देंगें?”
हे राम… नाम महात्मा और सोच? अकल्पनीय।
ऐसे एक दो नहीं अनगिनत उदाहरण हमें मिलेंगे। उनकी कथनी और करनी में ज़मीन आसमान का फर्क था, यह किसी से छुपा नहीं है। इतने विपरीत सोंच और व्यक्तित्व के व्यक्ति कॊ महात्मा कहना उचित है? यह आप ही तय कीजिये।: