हैदराबाद मुक्ति दिवस: नेहरू हैदराबाद में सेना भेजने से क्यो डरते थे?


हैदराबाद में सेना भेजने से क्यों डर रहे थे नेहरू? सरदार पटेल ने नेहरू के इस डर को क्यों बताया था “दिवंगत गांधी की पत्नी का विधवा विलाप”?

   हर साल 17 सितंबर को हैदराबाद मुक्ति दिवस मनाया जाता है। यानी वो दिन जब भारतीय सेना ने “ऑपरेशन पोलो” चलाकर हैदराबाद को निजाम के जुल्मी शासन से मुक्ति दिलवाई थी। आज ये समझना बहुत ज़रूरी है कि हैदराबाद में भारतीय सेना को भेजने के लिये नेहरू और सरदार पटेल के विचारों में क्या अंतर था।    

   मई 1948 तक आते-आते तक जब हैदराबाद में हिंदुओं पर रजाकार मुसलमानों के जुल्म हद से ज्यादा बढ़ने लगे तो 13 मई को डिफेंस कमेटी की बैठक बुलाई गई। नेहरू और माउंटबेटन का मत था कि हैदराबाद की समस्या बातचीत से सुलझाई जानी चाहिए और सेना भेजने के तीन नुकसान हैं- 

  1. हैदराबाद में सेना भेजने से कश्मीर में जो युद्ध चल रहा है, उसमें सेना कम पड़ जाएगी।
  2. हैदराबाद में सेना भेजी तो बाकी भारत में मुसलमान विद्रोह कर दंगा-फसाद कर देंगे।
  3. भारत की आंतरिक सुरक्षा खतरे में पड़ जाएगी।

जवाहरलाल नेहरू और उस्मान अली खान

  नेहरू के इस तर्क के सामने सरदार पटेल के लिखित तर्क प्रस्तुत किये गये। उस समय पटेल देहरादून में स्वास्थ्य लाभ ले रहे थे। उनकी तरफ से वी.पी. मेनन ने कहा कि– “अगर हैदराबाद में एक्शन लेने में देरी की गई तो सरकार की प्रतिष्ठा इतनी खराब हो जाएगी कि देश की आंतरिक सुरक्षा की रक्षा कोई भी सेना नहीं कर पाएगी।” 

नेहरू को हिंदुओं के नरसंहार का इंतजार था

   आखिरकार इस बैठक में तय हुआ कि बातचीत के साथ-साथ सैन्य तैयारियां भी आरंभ की जाएं। लेकिन अंदरखाने में नेहरू अपने मित्र माउंटबेटन से कुछ और ही वादा कर रहे थे। माउंटबेटन ने अपने रिपोर्ट में लिखा था कि -

   "पंडित नेहरू ने बैठक में खुले तौर पर कहा और बाद में मुझे निजी तौर पर आश्वासन दिया कि वह सैन्य ऑपरेशन शुरू करने के लिए कोई आदेश देने की अनुमति नहीं देंगे, जब तक कि वास्तव में हैदराबाद में कोई हिंदुओं के बड़े नरसंहार जैसी कोई घटना न हो जाये। अगर ऐसी घटना (हिंदुओं का नरसंहार) होती है, तब दुनिया की नजरों में भारत सरकार की इस सैन्य कार्रवाई को स्पष्ट रूप से उचित माना जाएगा।”

ऑपेरशन पोलो: सेना द्वारा किले की घेराबंदी करते हुए

   यानी नेहरू का मानना था कि पहले हैदराबाद में हिंदुओं के नरसंहार का इंतज़ार करना चाहिए, और उसके बाद हमला बोलना चाहिए। इसी बीच माउंटबेटन का कार्यकाल खत्म हो गया और वो 21 जून 1948 को लंदन चले गये। अब उनके स्थान पर सी. राजगोपालाचारी को नया गवर्नर जनरल बनाया गया। लेकिन हैदराबाद के मामले में राजाजी भी गांधी की अहिंसा के नाम पर नेहरू के साथ खड़े थे। इस पर सरदार पटेल ने बेहद चौंकाने वाली प्रतिक्रिया दी थी। पटेल के नीजि सचिव वी. शंकर ने अपनी पुस्तक "My Reminiscences of Sardar Patel, Vol. 1" में लिखा है कि –

   "हैदराबाद के मामले में सरदार पटेल ने राजाजी और पंडित नेहरू की असहमति को 'दो विधवाओं का विलाप' बताया था। उनके (नेहरू और राजाजी के) दिवंगत पति (अर्थात गांधीजी) अगर आज जीवित होते तो अहिंसा के इस सिद्धांत से हटने पर वो क्या प्रतिक्रिया देते।"

इंडियन एक्सप्रेस

कितनी कड़ी और कड़वी बात है, जो सरदार पटेल ने कही थी। उन्होंने नेहरू के विरोध को "विधवा विलाप" और गांधीजी को इस विधवा नेहरू का "दिवंगत पति" बताया। खैर, इसी बीच अगस्त 1948 तक जब हैदराबाद राज्य से बातचीत का कोई असर होता नहीं दिख रहा था। लाखों की संख्या में हिंदू हैदराबाद से पलायन कर बॉम्बे और मध्य प्रांत में पहुंच रहे थे। ऐसे में नेहरू सरकार पर मिल्ट्री एक्शन लेने के लिये दवाब बढ़ने लगा। 

नेहरू ने 'पद और गोपनीयता' के सपथ का उलंघन किया

  इसी ऊहापोह में नेहरू ने 29 अगस्त 1948 को माउंटबेटन को एक भावुक पत्र लिखा–

   “मैंने हैदराबाद के खिलाफ किसी भी बड़े स्तर की कार्रवाई को टालने और स्थगित करने की पूरी कोशिश की, लेकिन मुझे सफलता नहीं मिली। इसका नतीजा यह हुआ है कि जहां तक इस मामले का सवाल है, यहां बड़ी संख्या में लोगों का मुझ पर पूरा भरोसा नहीं है। हैदराबाद समस्या का कोई समाधान नहीं हो सकता, जब तक कि कुछ प्रभावी दंडात्मक उपाय नहीं किए जाते।”

स्थानीय लोगो द्वारा खुशियां मनाते हुए

   इस पत्र को पूरा पढ़कर साफ समझ में आता है कि नेहरू ने दवाब में आकर हैदराबाद पर कड़ा एक्शन लेने के लिये हामी देने का मन बना लिया था। लेकिन बड़ा सवाल ये है कि नेहरू ने इतनी महत्वपूर्ण जानकारी लॉर्ड माउंटबेटन को क्यों दी? जबकि माउंटबेटन उस समय भारत के गवर्नर जनरल भी नहीं थे। क्या ये प्रधानमंत्री की ‘पद एवं गोपनियता’ की शपथ का उल्लंघन नहीं है?

   खैर 8 सिंतबर 1948 तक आते-आते नेहरू का मन फिर बदल गया। वो फिर शांति और अहिंसा की दुहाई देकर हैदराबाद में सेना भेजने का विरोध करने लगे। इसी दिन कैबिनेट की बैठक में नेहरू और सरदार पटेल के बीच जमकर झड़प हुई, यहां तक कि पटेल बैठक छोड़कर बाहर तक निकल गये। 

मेजर जनरल सैयद अहमद अल एदूर्स (दाएँ) मेजर जनरल जयन्त नाथ चौधुरी के सामने सिकन्दराबाद में आत्मसमर्पण करते हुए।
मेजर जनरल सैयद अहमद अल एदूर्स (दाएँ) मेजर जनरल जयन्त नाथ चौधुरी के सामने सिकन्दराबाद में आत्मसमर्पण करते हुए।

नेहरू को प्रधानमंत्री पद से हटाओ

   इस बैठक का आंखों देखा तूफानी वर्णन वी.पी. मेनन ने हैनरी हडसन को 1964 में दिये इंटरव्यू में किया है। ये इंटरव्यू SOAS (School of Oriental and African Studies) University of London के अर्काइव में सुरक्षित रखा हुआ है। मेनन के मुताबिक–

   ''नेहरू ने बैठक शुरु होते ही मुझ पर हमला बोल दिया। दरअसल वो मेरे बहाने सरदार पटेल पर निशाना साध रहे थे। पटेल कुछ समय तक तो शांत रहे, लेकिन जब नेहरू की कड़वी बातें बंद नहीं हुईं तो वो उठे और बैठक से वॉकआउट कर गए। मैं भी उनके पीछे-पीछे बाहर आ गया। इसके बाद राजगोपालाचारी जी और मैं सरदार पटेल के पास पहुंचे। वो बिस्तर पर लेटे हुए थे, उनका ब्लड प्रेशर बहुत बढ़ा हुआ था। पटेल गुस्से में चीखे– ‘नेहरू खुद को क्या समझते हैं। आज़ादी की लड़ाई हम लोगों ने भी लड़ी है’ पटेल चाहते थे कि कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक बुला कर नेहरू को प्रधानमंत्री पद से हटा दिया जाए। लेकिन राजाजी ने सरदार को मना लिया और फिर इसके बाद हुई बैठक में नेहरू चुप रहे और हैदराबाद पर हमला करने का फैसला हो गया।”

हैदराबाद का निजाम उस्मान खान और तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल

हैदराबाद का मामला संयुक्त राष्ट्र में ले जाना चाहते थे नेहरू

   मेनन की तरह कुछ ऐसा ही वर्णन सरदार पटेल की बेटी मणिबेन ने अपनी डायरी (The Diary of Maniben Patel: 1936-50) में किया है, वो लिखती हैं कि–

   “सरदार पटेल ने राजाजी से कहा कि जवाहरलाल डेढ़ घंटे तक कैबिनेट में नाराज़ होते रहे। उनका मानना है कि हैदराबाद का मामला संयुक्त राष्ट्र में उठाया जाएगा। लेकिन सरदार पटेल ने कहा कि हम इस नासूर (हैदराबाद में निजाम का राज) को भारत के दिल में नहीं रख सकते। इस बात पर जवाहरलाल बहुत क्रोधित थे।”

   आखिरकार नेहरू तैयार हुए और भारतीय सेना 13 सितंबर 1948 को धड़धड़ाती हुई हैदराबाद में दाखिल हो गई और महज चार दिन बाद 17 सितंबर को निजाम की सेना ने अपने घुटने टेक दिये।






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