नागरिकता संशोधन बिल (CAB) कैसे हिंदुस्तान में रहने वाले मुसलमानों के खिलाफ है? और वो क्यों डर रहे हैं? ये बात किसी भी समझदार इंसान की समझ में नहीं आ रही है। दरअसल इसके पीछे हैं सिर्फ और सिर्फ "मुसलमानों की हक" वाली मानसिकता। और इस मानसिकता का एक ही उद्देश्य रहता है कि जहां कहीं भी किसी का भला हो रहा हो वहां जाकर पूरे "हक" से अपना हिस्सा मांगो, चाहे उस हिस्से पर आपका अधिकार हो या न हो। अब नागरिकता संशोधन बिल पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के प्रताड़ित अल्पसंख्यको के हित में है तो "अल्पसंख्यक" शब्द सुनकर भाई लोग वहां भी पहुंच गए।
भारत बटवारे के बाद अलग "मुस्लिम निर्वाचन" की मांग
ये "हक से मांगो" वाली मानसिकता कितनी बेशर्म और छिछली है, इसकी मिसाल आज़ादी के सिर्फ 13 दिन बाद ही दिख गई थी। 28 अगस्त 1947 को संविधान सभा की बैठक में मुस्लिम लीग के कुछ माननीय सदस्यों ने आज़ाद भारत में भी अलग मुस्लिम निर्वाचन क्षेत्रों की मांग की। अब आप सोच रहे होंगे कि आज़ाद भारत की संविधान सभा जो भारत का संविधान बना रही थी, उसमें जिन्ना की मुस्लिम लीग के सदस्य कहां से आ गए?
दरअसल हुआ ये था कि जैसा मैंने अपनी पिछली पोस्ट (यहाँ क्लिक करके पढ़े!) में बताया था कि 1946 के चुनावों में भारत के हिस्से में पड़ने वाली ज्यादातर मुस्लिम सीटों से मुस्लिम लीग जीती थी और जब पाकिस्तान बन गया तो इनमें से कई नुमाइंदे भारत में ही रह गए। यानि जो मुस्लिम लीग के निशान पर चुनाव लड़े, उन्होने बंटवारे के बाद भारत में रहना पसंद किया। देखा कितनी मुहब्बत थी इनको इस हिंदुस्तान और उसकी धरती से?
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खैर जो मुस्लिम लीग के सदस्य भारतीय संविधान सभा में पूरे "हक" के साथ बैठे थे उनमें थे "बी. पोकर साहिब बहादुर" (मैसूर स्टेट), जिन्ना की सबसे खासमखास महिला लीगी नेता लखनऊ की बेगम एजाज़ रसूल, बंगाल के नज़ीरुद्दीन अहमद और भी ना जाने कितने नाम थे। अभी बंटवारे को 13 दिन भी नहीं हुए थे कि इन लोगों ने फिर अपनी "हक" वाली पाकिस्तानी चाल चली। मुस्लिम लीग के सदस्यों ने एक प्रस्ताव पेश किया कि "आज़ाद भारत में भी मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचन मंडल (separate electorate) होने चाहिए"। यानि आसान भाषा में समझा जाए तो लोकसभा और विधानसभा के चुनावों में मुस्लिमों के लिए आरक्षित सीटें हों, जहां से सिर्फ मुसलमान ही चुन कर आ सके। हैरत की बात है कि इन मुस्लिम लीग के नेताओं की "हक" वाली मांग के साथ कांग्रेस के मौलाना अबुल कलाम आज़ाद जैसे राष्ट्रवादी मुस्लिम सदस्य भी कंधे से कंधा मिलाकर साथ खड़े थे।
1946 के चुनाव में मुस्लिम लीग ने 87% सीट जीता था |
तो वो दिन था 28 अगस्त 1947 का। इसी "हक" के मुद्दे पर संविधान सभा में बहस शुरु हुई। चुनावों में मुसलमानों के लिए अलग सीट की वकालत करते हुए माननीय नज़ीरुद्दीन अहमद और उनके बाकी साथियों ने पूरे "हक" से अपने तर्क रखे। और यहीं से शुरु होती है बेशर्मी और छिछलापन। अब चंद रोज़ पहले ही मुसलमानों ने "हक" के साथ पाकिस्तान लिया था और अब फिर से पूरे "हक" के साथ नज़ीरुद्दीन अहमद साहब ने कहा कि "हिंदू बड़े भाई हैं, और मुसलमान छोटे भाई। यदि छोटे भाई की मांग को स्वीकार कर लेंगे तो बड़े भाई को छोटे भाई का प्यार मिलेगा, नहीं तो वो हमारा प्यार गंवा देंगे।” अब आप ही बताइये इसे बेशर्मी की हद नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे?
सरदार पटेल ने भरपूर जबाब दिया था
खैर बेशर्मी से भरी इस मुस्लिम "हक" वाली मांग का जवाब देने के लिए खड़े हुए सरदार पटेल। सरदार ने जो जवाब दिया उसे ध्यान से पढ़ियेगा, ये जवाब आज भी बहुत काम का है, इसे हर राष्ट्रवादी हिंदुस्तानी को जानना चाहिए। साथ ही हर मुसलमान को भी ये पढ़ना चाहिए कि इस देश का एक महानायक उन्हें क्या सीख देकर गया था। तो सुनिए सरदार ने क्या कहा था -
"मैं छोटे भाई (मुसलमानों) का प्रेम गंवा देने के लिए तैयार हूं। हमने आपका प्यार देख (भुगत) लिया है। आपको अपनी हरकतों में परितर्वन करना चाहिए, नहीं तो आपकी मांग मानने से बड़े भाई (हिंदुओं की) की मौत भी हो सकती है। अब ये सारी चर्चा छोड़ दो और ये सोचो कि आप देश को सहयोग देना चाहते हैं या तोड़-फोड़ की चालें आजमाना चाहते हैं। अब अतीत को भूलकर आगे देखो। मैं आपसे हृदय परिवर्तन की अपील करता हूं। कोरी बातों से कोई काम नहीं चलेगा। आप अपनी मानसिकता पर फिर से विचार करें। आपको जो चाहिए था, वह (पाकिस्तान) मिल गया है। याद रखिए, आप लोग ही पाकिस्तान के लिए जिम्मेदार हैं, पाकिस्तान के निवासी नहीं। आप लोग ही पाकिस्तान आंदोलन के अगुआ थे। अब आपको क्या चाहिए, हमें सब पता है। हम नहीं चाहते कि देश का फिर से बंटवारा हो जाए। जिन्हें पाकिस्तान चाहिए था, उन्हें वह मिल गया है। जिनकी पाकिस्तान में श्रद्धा है, वे वहां चले जाएं और सुख से रहें। अब यहां रहने वाले मुसलमानों का कर्त्तव्य है कि वे अपने कर्मों से इस देश की बहुसंख्यक जनता को विश्वास दिलाएं कि वे इस देश के साथ हैं। जो अल्पमत (मुसलमान) देश का विभाजन करा सकता है उसे आप अल्पमत कैसे कह सकते हैं? ऐसे ताकतवर, संगठित अल्पमत (मुसलमान) को अब और क्या विशेषाधिकार चाहिए?"
सरदार पटेल ने मुस्लिम नेताओं को जो आईना दिखाया उससे सब सकते में आ गए, नतीजा मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र की मांग वहीं की वही दफन हो गई। तो आइए इतिहास से निकलकर आते हैं वापस वर्तमान पर। इस पूरे किस्से को पढ़ने और जानने के बाद आपको इतना तो समझ आ ही गया होगा कि "मुसलमानों का हक" वाली मानसिकता तब से लेकर आज तक नहीं बदली है। और इस मानसिकता के लिए सिर्फ मुस्लिम दोषी नहीं हैं, उनसे कहीं ज्यादा दोषी वो हैं जो उनकी इस हक वाली मानसिकता को हवा देते हैं और नागरिकता संशोधन बिल इसकी सबसे ताज़ी मिसाल है।
नोट- ये मुल्क जितना हिंदुओं का है उतना ही मुसलमानों का है। लेकिन मुस्लिम भाइयों को इतिहास के सच को स्वीकार करना होगा। जो गलतियां की गई हैं, उन्हे आज रोकने की कोशिश करनी होगी। जहां ज़रूरत है वहां हक मांगे और हक तो पहले से ही मिला भी हुआ है। लेकिन हर जगह हक वाली टांग नहीं अड़ाई जानी चाहिए।