जीवित रानी लाल पत्थर के घर मे और मरने के बाद संगमरमर के घर मे?
अभी तक पाठक भली-भांति समझ चुके होंगे कि ताजमहल शाहजहाँ ने नहीं बनवाया था। उसे बनवाने की अवश्यकता भी नहीं थी। क्योंकि जैसा भवन वह स्वयं बना सकने में समर्थ था, उससे कई गुणा अधिक भव्य भवन वह अनायाय ही हथियाने में सफल हो गया था। आगरा से दिल्ली तक अनेक भवनों का निर्माता शाहजहाँ कहा जाता है। यदि शाहजहाँ इन भवनों के साथ-साथ ताजमहल का भी निर्माता होता तो सभी भवन समान रूप से भव्य, कलात्मक तथा सुन्दर होने चाहिए थे। उन्नीस-बीस का अन्तर होना तो सम्भव था, परन्तु ज़मीन-आसमान का अन्तर तो प्रबुद्ध बुद्धि की कल्पना से परे है। कहाँ राजा भोज कहाँ गंगू तेली।
इनमें कुछ भवन उसके स्वयं के निवास के लिये थे तो कुछ उन अपूर्व सुन्दरियों के लिये थे, जो मुमताज महल की मृत्यु के पश्चात् उसकी जीवन संगिनियां बनी थीं। मरी प्रेयसी के लिये ताजमहल, परन्तु जीवित प्रेयसियों के लिये मात्र लाल पत्थर के कमरे? क्या किसी रानी-पटरानी ने किन्हीं अनुराग के क्षणों में भी मनुहार नहीं की होगी? जो विद्वान यह कहते हैं कि ताजमहल बनाने के लिये अर्जुमन्द बानों ने मरते समय शाहजहाँ से वचन लिया था(?), उनके पास इस प्रश्न का क्या उत्तर है कि शाहजहाँ की शेष बची ४९९९ रानियों ने, जो युवती थीं, लावण्यमयी थीं तथा शाहजहाँ को लुभाने में भी समर्थ थीं, उन्होंने अपने जीवन-काल में स्वयं के निवास के लिये ताजमहल के समान भव्य भवन की मांग क्यों नहीं की? क्यों नहीं रूठीं? क्यों नहीं मनुहार की? तथा क्यों नहीं कहा ऐसा उसमें क्या था, जो हम में नहीं है?
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ताजमहल के गर्भगृह में तथाकथित कब्र |
शाहजहाँ का फरमान और मकराना का संगमरमर
कुछ इतिहासज्ञ शाहजहाँ द्वारा मकराना की खानों से संगमरमर पत्थर मंगाने के लिये भेजे गये फरमानों को अभी भी पुष्ट प्रमाण मानते हैं कि उसी संगमरमर से ताजमहल बनाया गया था तथा उसी से कुरान लिखी गई थी। सन् १६३२ ई. में संगमरमर मंगाने के लिऐ उनका तर्क है कि संगमरमर की कटाई, छिलाई, सफाई, उस पर चित्रकारी आदि में पर्याप्त समय लगना था, अतः एक ओर ईंट-पत्थर से भवन बनता रहा होगा तथा दूसरी ओर संगमरमर पर कार्य होता रहा होगा। जब भवन बन गया होगा तब उस पर संगमरमर कुरान सहित ऊपर से लगाई गई होगी, आदि।
सम्भव है आपको भी इनके तर्कों में कुछ तथ्य दृष्टिगोचर हो रहे हों। आप इनसे प्रभावित हों, उससे पहले निवेदन कर दूं कि हमारे इन मित्रों ने शाहजहाँ के फरमानों के बारे में मात्र सुना है कि शाहजहाँ ने २-३ फरमान राजा जयसिंह को संगमरमर भेजने के लिए भेजे थे, परन्तु इन्होंने स्वयं इन फरमानों को कभी देखा नहीं है। कदाचित देखा भी है तो उन्हें ध्यानपूर्वक पढ़ा नहीं है। आइये, एक बार पुनः फरमानों का सूक्ष्म अवलोकन करें। इसके लिये फरमान क्र. २ को देखना पर्याप्त है।
नीचे दिए गए लिंक से फरमान को पढ़ सकते है।
🗒️ पहला फरमान
🗒️ दूसरा फरमान
🗒️ तीसरा फरमान
फरमान क्रमांक २ की समीक्षा
यह फरमान ३ फरवरी सन् १६३३ ई. को जारी किया गया था। इसका पृष्ठ (पिछला भाग) महत्वपूर्ण है। इसमें नौ प्रशासनिक जिलों से २३० गाड़ी संगमरमर भेजने की बात कही गई है। यही नहीं, इसमें यह भी स्पष्ट लिखा है कि पहले फरमान (दि. २० सितम्बर सन् १६३२) भेजे जाने के बाद जितनी गाड़ी संगमरमर की भेजी जा चुकी हों, उतनी गाड़ियाँ कम कर दी जाएं। दूसरे शब्दों में शाहजहाँ को मात्र २३० गाड़ियाँ संगमरमर की आवश्यकता थी।
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उस समय मकराना से अकबराबाद (आगरा) तक बैलगाड़ी, भैंसागाड़ी, ऊँटगाड़ी से यात्रा की जाती थी। एक गाड़ी में दो बैल या भैंसे जोते जाते थे, परन्तु ऊँट-गाड़ी में ऊँट एक ही जोता जाता था। इस प्रकार तीनों की क्षमता लगभग समान होती थी। फरमान में मात्र गाड़ियाँ ही लिखा है। अतः यह नहीं कहा जा सकता कि किसी विशेष गाड़ी की आवश्यकता थी। तीनों का मिश्रण भी हो सकता था। आधुनिक गाड़ियों में बाल बेअरिंग तथा मोटर टायर का प्रयोग होता है, अतः इनकी क्षमता में पर्याप्त वृद्धि हुई है। मेरे बचपन में गाड़ियों में लकड़ी के पहिये लगाये जाते थे, जो समतल मार्ग पर चलती थी। पहियों के भार से मार्ग दोनालियों के समान हो जाता था, जिसे लीक कहते थे। लीक में प्रायः गढ्डे होते थे, जिनके कारण अधिक माल ढोना कठिन होता था।
आज से ५० वर्ष पूर्व एक बैलगाड़ी में सामान्यतः १०-१२ बोरा अन्न लादा जाता था। यदि बैल अच्छी नस्ल के तथा पुष्ट होते थे तो १५-२० बोरी माल भी लाद लिया जाता था। एक बोरी में ढाई मन भार आता था तथा सवा सत्ताइस मन का एक टन होता था। इस प्रकार हम देखते हैं कि एक गाड़ी में सामान्यतः एक से डेढ़ टन माल ढोया जा सकता था। इस प्रकार २३० गाड़ियों के द्वारा शाहजहाँ ने कम से कम २३० टन तथा अधिक से अधिक ४०० टन संगमरमर की मांग की थी।
सम्राज्ञी के निधन अथवा उसको दफन करने के पश्चात् दूसरा फरमान भेजे जाने तक पर्याप्त समय बीत गया था। उस समय तक आकलन कर लिया गया होगा कि कितने संगमरमर की आवश्यकता थी, तदनुसार ही फरमान जारी कर दिया गया। उस समय हाथ से कटाई होती थी, अस्तु। खानों में उत्पादन अति न्यून होता था। अतः एक ही क्षेत्र पर निर्भर न रहकर नौ प्रशासनिक जिलों से संगमरमर मंगाने का निर्णय लिया गया था।
प्रबुद्ध पाठकों से एक प्रश्न
अब मैं प्रबुद्ध पाठकों के सम्मुख एक प्रश्न रखना चाहूंगा। शाहजहाँ ने मात्र २३० टन संगमरमर मंगाया था; क्या ताजमहल मात्र २३० टन संगमरमर से बना है? क्या २५० फीट ऊँचा ताजमहल मात्र १ या डेढ़ टन प्रति फुट (ताजमहल की ऊंचाई) संगमरमर से बन सकता है? लगभग १९ फीट ऊँची ३२८ वर्ग फीट की कुर्सी पर बना विशाल भवन, १३४ फीट ऊँचे चार स्तम्भों सहित मात्र ४०० टन संगमरमर बना दिया गया? है न चमत्कार !
आप कुछ अन्य कुतर्क खोजें कि इतनी ही नहीं हजारों गाड़ी संगमरमर मंगाया गया होगा? तो कृपया इसको सिद्ध करने के लिये कोई अन्य स्पष्ट हजारों गाड़ियों का फरमान लाइये। हाँ लगभग ३०० टन संगमरमर में कब्रें बनाई जा सकती है एवं कुरान लिखी जा सकती हैं। इसको एक भोला-भाला व्यक्ति भी समझ सकता है। अतः स्पष्ट सिद्ध है कि मकराना की खानों से मंगाये गये संगमरमर से न तो ताजमहल बनाया गया था और न ही बनाया जा सकता था।
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