- शास्त्री जी का शव नीला क्यों पड़ गया था?
- क्या उन्हें जहर दिया गया था?
- शास्त्री जी के शरीर पर काटे जाने के निशान क्यों थे?
- देश के प्रधानमंत्री की रहस्यमय हालात में मौत होती है और फिर भी उनका पोस्टमार्टम क्यों नहीं किया जाता है?
- शास्त्री जी को जहर देने के शक में एक शख्स को ताशकंद में हिरासत में लिया गया था, वह कौन था? और उसे क्यों छोड़ दिया गया?
- आखिर उस थर्मस की मिस्ट्री क्या है? जिसमें आखिरी बार शास्त्री जी ने पानी पिया था!
- क्या था इंदिरा गांधी का लाल बहादुर शास्त्री की मौत से कनेक्शन?
क्या आप जानते हैं कि 59 साल में शास्त्री जी की मौत की सिर्फ एक बार जांच कराने की कोशिश हुई है। लेकिन को कोई नतीजा निकलता, इसके पहले ही उनकी मौत के दो सबसे बड़े चश्मदीद और राजदार एक भयंकर सड़क हादसे के शिकार हो गए।
लाल बहादुर शास्त्री की मौत किस हालात में हुई थी?
लेकिन शास्त्री जी की मौत का राज क्या है? ये जानने से पहले ये जानना बाहत जरूरी है कि आखिर उनकी मौत किन हालात में हुई थी?
सितंबर 1965 में भारत और पाकिस्तान के बीच भयानक जंग हो रही थी। देश की कमान लाल बहादुर शास्त्री के हाथों में थी। इस जंग में हिंदुस्तान की सेना ने पाकिस्तान को चारों खाने चित कर दिया। पाकिस्तान के साथ युद्ध खत्म होने के बाद लाल बहादुर शास्त्री पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान के साथ बातचीत के लिए सोवियत संघ के शहर ताशकंद पहुंचे। सोवियत संघ के प्रधानमंत्री एलेक्सी कोसिजिन की मध्यस्थता में शास्त्री जी और अयूब खान के बीच पूरे सात दिन तक बातचीत चली।
ताशकंद समझौता
10 जनवरी 1966 की शाम 5:00 बजे शास्त्रीजी और अयूब खान समझौते पर सहमत हो गए। इस समझौते को नाम दिया गया “ताशकंद समझौता”! कहते हैं सोवियत संघ के दबाब में भारत ने पाकिस्तान को समझौते के तहत युद्ध में जीता गया हाजीपीर और तिथवाल इलाका लौटा दिया था। इस फैसले से सब हैरान थे! क्योंकि कश्मीर घाटी के दोनों इलाके सामरिक रूप से बहुत महत्व के थे!
जब शास्त्रीजी की तबियत खराब होती है
खैर इसी रात 1:20 पर शास्त्री जी की तबीयत अचानक खराब हो गई। उनके कमरे में ना बजर था, ना फोन। वो खुद चलकर अपने निजी सहायक रामनाथ के कमरे में पहुंचे। शास्त्री जी की इस हालत को देखकर, उनके साथ गए पर्सनल डॉक्टर डॉ. चुग को उनके कमरे में बुलाया गया। शास्त्रीजी डॉक्टर चुग से कुछ कहना चाह रहे थे, लेकिन उनकी आवाज नहीं निकल रही थी। वो बार-बार अपने बिस्तर के पास रखे थर्मस की ओर इशारा कर रहे थे। डॉक्टर चुग ने उन्हें एक इंजेक्शन दिया, लेकिन सब बेकार रहा।
अंतिम संस्कार पर इंदिरा का विरोध
वतन का ये लाल देश से हजारों किलोमीटर दूर हमेशा-हमेशा के लिए खामोश हो गया। शास्त्री जी का शव हिंदुस्तान पहुंचाया गया और उनके अंतिम संस्कार के पहले एक बहुत बड़ा विवाद शुरू हो गया। दरअसल इंदिरा गांधी नहीं चाहती थी कि लाल बहादुर शास्त्री का अंतिम संस्कार दिल्ली में हो। जिसके बाद लाल बहादुर शास्त्री की पत्नी ललिता शास्त्री ने आमरण अनसन की चेतावनी दे दी थी। हालांकि इंदिरा गांधी तब तक प्रधानमंत्री नहीं बनी थी। लेकिन शास्त्री के बाद प्रधानमंत्री बनने की रेस में वो बहुत आगे थी।
इंदिरा गांधी और ललिता शास्त्री के बीच हुए इस विवाद के बारे में लिखा है, वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर ने अपनी आत्मकथा “एक जिंदगी काफी नहीं!” में। मैं आपको बता दूं कि कुलदीप नैयर शास्त्री जी के प्रेस एडवाइजर थे, और उनकी मौत के समय वह ताशकंद में ही मौजूद थे और सारी घटनाओं के चश्मदीद थे। नैयर अपनी इस किताब के पेज नंबर 211 पर जो लिखते हैं, उसे आप ध्यान से पढ़िए! वो लिखते हैं कि-
“अगर इंदिरा गांधी का बस चलता तो वो लाल बहादुर शास्त्री का अंतिम संस्कार उनके गृह नगर इलाहाबाद में करवाना पसंद करती। उन्होंने तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष कामराज को यही सुझाव दिया था, जिसे कामराज ने ठुकरा दिया। शास्त्री का अंतिम संस्कार दिल्ली में किए जाने की मांग पर इंदिरा गांधी के नकारात्मक रवैए के बाद ललिता शास्त्री ने आमरण अनसन की धमकी दे दी। आखिरकार इंदिरा गांधी को झुकना पड़ा।”
शास्त्रीजी का शव नीला क्यो था?
दरअसल लाल बहादुर शास्त्री की रहस्यमई मौत के ठीक बाद, उनके परिवार को चुप कराने की कोशिशें शुरू हो गई थी। शास्त्री जी का शव पूरा नीला पड़ चुका था, जिसे लेकर परिवार को शक हो रहा था। लेकिन उनकी बात कोई नहीं सुन रहा था। इस बात का सबूत है, यह तस्वीर! शास्त्री जी के शव की एकलौती रंगीन तस्वीर है, इस तस्वीर में साफ नजर आ रहा है कि शास्त्री जी का चेहरा पूरा नीला पड़ चुका था।
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शास्त्रीजी के शव के पास निहारती हुई गमगीन ललित शास्त्री |
4 वर्ष बाद ललित शास्त्री का राहस्योघाटन
शास्त्री जी की मौत के पूरे 4 साल तक चुप रहने के बाद आखिरकार उनकी पत्नी ललिता शास्त्री ने वो खुलासा किया, जिसे जानने के बाद पूरे देश में हड़कंप मच गया। ललिता शास्त्री ने 14 अक्टूबर 1970 को उस समय देश की सबसे मशहूर मैगजीन रही 'धर्मयुग' को एक सनसनी खेज इंटरव्यू दिया। इस इंटरव्यू में ललिता शास्त्री ने कहा कि-
“एयरपोर्ट पर हम में से किसी को भी उनके शव के पास जाने की इजाजत नहीं दी गई, हरे किशन ने मुझे बताया कि वह भी बड़ी हील- हुज्जत के बाद उनके शव तक पहुंच सका था। शास्त्री जी के शरीर पर नीले धब्बे पड़े हुए थे। यहां तक कि शब को नाहलाने के दौरान भी हमको उनके पास नहीं जाने दिया गया। उनका पूरा शरीर नीला पड़ने के साथ-साथ बुरी तरह से फूल गया था। आपको ये जानकर हैरानी होगी कि उनका शरीर इस कदर फूल गया था कि उनके कुर्ते को बड़ी मुश्किल से निकाला गया। जबकि बनियान को तो फाड़कर अलग किया गया। जब कुछ लोगों ने शास्त्री जी के चेहरे के धब्बों की तरफ इशारा किया तो किसी ने फौरन एक कटोरी में चंदन का लेप लाकर उनके पूरे चेहरे पर पोत दिया। लेकिन दाग इतने गहरे थे कि चंदन का लेप लगाने पर भी वह साफ नजर आ रहे थे। उनके पेट में प्लस (+) के जैसे चीरे जाने का निशान था। किसी को नहीं पता कि यह निशान कैसे आया! मेरे मन में तभी कुछ शक थे। लेकिन मैं इतनी व्यथित थी कि मैं इस बारे में किसी से कुछ कह नहीं सकी।”
ललिता शास्त्री ने इस इंटरव्यू में एक और खुलासा किया। उन्होंने बताया कि-
“शास्त्री जी ने मरने से पहले अपने थर्मस की तरफ बार-बार इशारा किया था! जाहिर है उसमें रखे पानी में कुछ गड़बड़ थी जिसकी तरफ वो इशारा कर रहे थे! शास्त्री जी ने आखिरी बार इसी थर्मस से पानी पिया था जो उनके निजी सहायक रामनाथ ने दिया था।”
शास्त्रीजी के थर्मस के इशारे कुछ कहती थी
ललिता शास्त्री ने धर्मयुग को दिए इंटरव्यू में कहा था कि- “शास्त्री जी को थर्मस की तरफ इशारा करते देख, वहां मौजूद लोगों को लगा कि वह पानी मांग रहे हैं। लिहाजा उनको फौरन पानी निकाल कर दिया गया। लेकिन उन्होंने पानी पीने की बजाय उसी थर्मस की तरफ एक बार फिर उंगली उठाकर इशारा किया। लेकिन बाद में थर्मस उनके सामान के साथ वापस भारत नहीं आया, इसे गायब कर दिया गया। उनके सामान के साथ उनकी निजी डायरी भी वापस नहीं आई। मैं नहीं जानती कि इन चीजों को किसने गायब किया? मैं हमेशा सोचती रहती हूं कि शायद उन्होंने इस डायरी में मेरे लिए भी कुछ लिखा होगा। लेकिन वह क्या लिखा होगा? मैं कभी नहीं जान पाऊंगी। मुझे लगता है कि मेरे पति की हत्या की गई है। लेकिन मैं नहीं जानती कि इसके लिए किसे जिम्मेदार ठहराना चाहिए?”
ललिता शास्त्री के सनसनी खेज इंटरव्यू कर के बाद पूरे देश में हंगामा मच गया। इसकी गूंज संसद में भी सुनाई दी। देश में जल्द चुनाव होने वाले थे, इसे देखते हुए इंदिरा गांधी की सरकार ने संसद में एक लिखित स्टेटमेंट जारी किया। जिसमें कहा गया कि “शास्त्री जी के शव को सुरक्षित रखने के लिए उनके शरीर की एमबालमिंग (embalming) की गई थी। जिसके तहत उनके शरीर में 3 लीटर स्प्रीट और फॉर्मलीन डाले गए। इसी वजह से उनका शरीर नीला पड़ गया था।”
लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह था कि ताशकंद में उस वक्त भयंकर ठंड पड़ रही थी। दिल्ली! जहां शास्त्री जी का शव आना था, वहां भी ठंड का मौसम था। ताशकंद से दिल्ली की फ्लाइट भी कुछ ही घंटों की थी। ऐसे में इस शव को इस तरह से सुरक्षित करने की जरूरत क्यों पड़ी? लिहाजा विपक्षी सदस्यों का आरोप था कि स्टेटमेंट में कई बातें छुपाई गई हैं।
संसद में राजनारायण का सवाल
इंदिरा सरकार पर सबसे गंभीर आरोप लगाया समाजवादी नेता राजनारायण ने! ये वही राजनारायण हैं, जिन्होंने 1977 में इंदिरा गांधी को रायबरेली से चुनाव में हराया और बाद में जनता पार्टी की सरकार में देश के स्वास्थ्य मंत्री बने। राजनारायण ने 18 दिसंबर 1970 को संसद में कहा कि-
“लाल बहादुर शास्त्री एक गरीब के घर में पैदा हुए बालक थे, जो बाद में इस देश का प्रधानमंत्री बन गया। इस सरकार ने पूरी कोशिश की कि लाल बहादुर शास्त्री को इस दुनिया से उठा लिया जाए। पूरे देश के लोग यही कह रहे हैं कि शास्त्री जी को उनके इशारे पर मारा गया है, जो खुद प्रधानमंत्री बनना चाहते थे। और इंदिरा गांधी का नाम इस लिस्ट में सबसे से ऊपर आता है। इंदिरा गांधी अक्सर यह अफसोस जताती थी कि हमारे घर का नौकर प्रधानमंत्री बन गया और मैं ऐसी ही रह गई। शास्त्री जी को मरवाया गया है। लेकिन इस नालायक सरकार ने उसकी जांच के लिए कमेटी भी नहीं बनाई। शास्त्री जी के निजी सहायक रामनाथ ने लोगों को बताया है कि उन्हें किस तरह से फुसलाया जा रहा है और किस तरह से उसे धमकियां दी जा रही हैं।”
विपक्षी सदस्यों का आरोप था कि शास्त्री जी की मौत पर ठीक तरह से बहस ना हो सके, इसलिए सरकार ने संसद सत्र के आखिरी दिन स्टेटमेंट पटल पर रखा है, और हुआ भी यही। संसद अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दी गई और मार्च 1971 में देश में नए आम चुनाव हो गए।
रहस्यमयी रसोइया मोहम्मद जॉन
लेकिन जब संसद में बहस हो रही थी, तब एक शख्स बेहद परेशान था। इस शख्स का नाम था टी एन कौल, जो उस समय भारत के विदेश सचिव थे। यह वही टीएन कौल थे जो शास्त्री जी की मौत के समय सोवियत संघ में भारत के राजदूत थे और भारत-पाकिस्तान वार्ता के दौरान ताशकंद में ही मौजूद थे। टीएन कौल के रसोइए मोहम्मद जान ने ही आखिरी बार लालबहादुर शास्त्री के लिए खाना बनाकर दिया था।
कुलदीप नैयर का सोवियत संघ में भारत के राजदूत टी.एन. कौल पर संदेश
लेकिन सबसे बड़ी बात यह थी कि कश्मीरी पंडित टीएन कौल नेहरू गांधी परिवार के बेहद खास और करीबी थे। इतना ही नहीं! कौल को सोवियत संघ का कट्टर समर्थक भी माना जाता था। शास्त्री जी की रहस्यमय मौत में टीएन कौल को लेकर वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर को भी शक था। 2010 में मैंने खुद लाल बहादुर शास्त्री की मौत पर इंडिया टीवी में एक डॉक्यूमेंट्री बनाई थी, जिसके लिए कुलदीप नैयर का भी इंटरव्यू लिया गया था। और अपने इंटरव्यू में कुलदीप नैयर ने कौल पर शक जाहिर किया था।
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ये वही टीएन कौल है, जो चीन के साथ तिब्बत समझौते पर चीनी लड़की के जाल में फंसे थे |
इतना ही नहीं! कुलदीप नैयर ने अपनी इस आत्मकथा “एक जिंदगी काफी नहीं” के पेज नंबर 208 पर इस बारे में लिखा है। नैयर लिखते हैं कि-
“टीएन कौल तब विदेश सचिव थे और शास्त्री की हत्या के षड्यंत्र में उन्हें भी भागीदार ठहराया जा रहा था। यह बड़ा वाहियात आरोप था कि रूस समर्थक इंदिरा गांधी को सत्ता में लाना चाहते थे। इसलिए टीएन कौल द्वारा भेजे गए खाने में जहर मिला दिया गया था। तब टीएन कौल ने मुझसे संपर्क किया और कहा कि मैं बयान जारी करके यह कहूं कि शास्त्री की मौत दिल के दौरे से हुई थी। जब मैंने उनसे कहा कि मैं किसी संसदीय बहस में नहीं उलझना चाहता हूं। तो वो मुझ पर बहुत ज्यादा जोर डालने लगे। कौल के बार-बार अनुरोध करने के बाद, मैं उस दिन से यह सोचने लगा कि क्या शास्त्री की मौत सच में दिल के दौरे से हुई थी?”
सोचिए! कोल की इस हरकत ने शास्त्री जी की मौत के चश्मदीद रहे कुलदीप नैयर के मन में भी शक डाल दिया कि "दाल में जरूर कुछ काला था।" दरअसल इसकी वजह थी टीएन कौल का रसोइया मोहम्मद जान। जिसने आखिरी बार एक रूसी रसोइए अहमद सत्तारोव (ahmad sattarov) के साथ मिलकर शास्त्री जी के लिए खाना बनाया था। मोहम्मद जान इस देश का एक हाई प्रोफाइल रसोइया था। वो कौल से पहले पूरे 11 साल तक मौलाना अबुल कलाम आजाद का भी रसोइया रह चुका था।
अहमद सत्तारोव के इंटरव्यू में राज खुला
शास्त्री जी की मौत के कुछ घंटों बाद ही सोवियत खुफिया एजेंसी केजीबी ने मोहम्मद जान और रूसी रसोइए अहमद सत्तारोव को गिरफ्तार कर लिया था। इस गिरफ्तारी का राज पहली बार 1998 में खुला था, जब ब्रिटिश अखबार 'द टेलीग्राफ' ने इस खबर को छापा था। बाद में जाकर 2013 में खुद अहमद सत्तारोव ने रूसी वेबसाइट रशिया बियोंड को एक इंटरव्यू दिया। जिसमें उसने अपनी गिरफ्तारी के बारे में सारी जानकारी देते हुए कहा कि "केजीबी के अफसर ने मुझे सुबह 4:00 बजे जगाकर बताया कि भारतीय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की मौत हो गई है, और यह शक है कि उन्हें जहर दिया गया है। इसके बाद मुझे हथकड़ियां लगाकर ताशकंद से 30 किमी दूर एक कसबे में तहखाने में बंद कर दिया गया। कुछ देर बाद केजीबी के लोग भारतीय रसोइए मोहम्मद जान को भी लेकर वहां आ गए। हमें लगा कि जरूर इसी रसोइए ने शास्त्री को जहर दिया होगा।”
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2013 में अहमद सत्तारोव ने रूसी वेबसाइट रशिया बियोंड को इंटरव्यू दिया |
शास्त्रीजी को जहर देने वाला आरोपी राष्ट्रपति भवन में रसोईया बना
हालांकि बाद में केजीबी ने अहमद सत्तारोव और मोहम्मद जान दोनों को सबूतों के अभाव में रिहा कर दिया। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि इस राज को भारत सरकार ने इतने सालों तक क्यों छुपा कर रखा? यहां तक कि 1970 में इंदिरा सरकार ने शास्त्री जी की मौत पर जो स्टेटमेंट जारी किया था, उसमें भी इस गिरफ्तारी का जिक्र नहीं था। हैरत की बात है कि जिस मोहम्मद जान पर देश के प्रधानमंत्री को जहर देने का आरोप लगा था, उसे बाद में दिल्ली में राष्ट्रपति भवन का रसोइया नियुक्त कर दिया गया।
दो गवाहों और राजदारों की संदिग्ध हत्या हुई
यह बात समझ से परे है कि मोहम्मद जान जैसे संदिग्ध को आखिर तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार द्वारा यह इनाम क्यों दिया? लेकिन इस मामले में सिर्फ इनाम ही नहीं दिया गया, बल्कि कुछ लोगों को भयंकर सजाएं भी मिली। और इन्हीं में से थे शास्त्री के निजी चिकित्सक डॉक्टर चुग और उनका निजी सहायक रामनाथ। ये दोनों शास्त्री जी की मौत के अहम चश्मदीद गवाह और राजदार थे। लेकिन दोनों संदिग्ध हालात में सड़क हादसे के शिकार हो गए।
दरअसल मार्च 1977 में आम चुनाव होने वाले थे। चुनावों में कांग्रेस की हार तय थी और यह माना जा रहा था कि जनता पार्टी सत्ता में आते ही शास्त्री जी की मौत की जांच के लिए एक आयोग का गठन कर सकती है। लेकिन चुनावों से कुछ दिन पहले वो हुआ, जो साजिश और शक को और पुख्ता बना देता है। शास्त्री जी के पर्सनल डॉक्टर चुग की कार को एक ट्रक ने टक्कर मार दी। जिसमें डॉक्टर चुग, उनकी पत्नी और उनके बेटे की घटना स्थल पर ही मौत हो गई। वहीं शास्त्री जी के निजी सहायक रामनाथ को शास्त्री जी के घर के पास ही, एक बस ने टक्कर मार दी। हालांकि रामनाथ जिंदा तो बच गया, लेकिन इस दुर्घटना में उसने अपना मानसिक संतुलन खो दिया। और वह किसी गवाही के लायक नहीं बचा।
रामनाथ के बारे में यह जानकारी मुझे खुद उसके बेटे ने साल 2010 में दी थी, जब मैं इंडिया टीवी में शास्त्री जी की रहस्यमई मौत पर एक डॉक्यूमेंट्री बना रहा था। वहीं डॉक्टर चुग की मौत का मामला तो खुद संसद में भी उठा था। 24 जून 1977 को सीपीएम के सांसद ज्योतिर्मय बसू ने लोकसभा में कहा था कि "ट्रक ने डॉक्टर चुग की कार को पीछे से टक्कर मारी थी। टक्कर के बाद डॉक्टर चुग कार से बाहर निकले, लेकिन इसी दौरान! उसी ट्रक ने उनको दोबारा टक्कर मारकर कुचल दिया। सामान्य तौर पर ऐसा किसी हादसे के दौरान नहीं होता है।"
1970 के आखिरी में विपक्ष के कई नेता शास्त्री जी की रहस्यमय मौत के मामले में इंदिरा गांधी पर लगातार आरोप लगा रहे थे। और उसकी वजह थी इंदिरा गांधी का सोवियत संघ का कट्टर समर्थक होना। विपक्ष के नेताओं का आरोप था कि निष्पक्ष लाल बहादुर शास्त्री की तुलना में इंदिरा गांधी सोवियत संघ के लिए फायदे का सौदा थी। इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद जिस तरह से भारत सोवियत संघ के खेमे में शामिल हो गया था, उससे इस आरोप को मजबूती भी मिल रही थी।
सरदार पटेल के बेटे दयाभाई का आरोप
यहां तक कि सरदार वल्लभ भाई पटेल के बेटे दयाभाई पटेल का भी यही मानना था। दयाभाई भाई पटेल राज्यसभा में सांसद थे और शास्त्री जी की मौत के बाद से ही इस मामले को संसद में जोर-शोर से उठा रहे थे। उन्होंने इस विषय पर एक बुकलेट लिखी थी, जिसका नाम था “Was Shastri Murder?” यानी “क्या शास्त्री की हत्या हुई थी?” इस बुकलेट में सरदार पटेल के बेटे दयाभाई पटेल ने लिखा था कि-
“सभी जानकार यह मानते थे कि शास्त्री जी ने भले ही ताशकंद समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए हो, लेकिन भारत लौटकर वह सियासी दबाव और विरोध में समझौते को पलट सकते हैं। लेकिन समझौते के फौरन बाद, अगर शास्त्री जी की मौत हो जाती है तो समझौते को लेकर किसी किस्म का विरोध नहीं होगा। ताशकंद समझौते को शास्त्री जी का अमन के लिए किया गया आखिरी बड़ा काम समझा जाएगा और हिंदुस्तानी आवाम अपने शहीद नेता के सम्मान के खातिर ताशकंद समझौते को आसानी से स्वीकार कर लेगा।”
इंदिरा गांधी मंत्रिमंडल से इस्तीफा देने वाली थी
दयाभाई पटेल ने जो कहा था, वह सही साबित हुआ था। शास्त्री जी की मौत के बाद ताशकंद समझौते की शर्तों पर किसी ने भी कोई सवाल नहीं उठाया। लेकिन एक सवाल ऐसा था, जो बार-बार उठाया जाता था। और वो था लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी के बेहद खराब रिश्ते। जी हां! शास्त्री जी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही इंदिरा गांधी उन्हें नापसंद करने लगी थी। यह बात मैं नहीं कह रहा! बल्कि यह बात लिखी है जम्मू कश्मीर के पूर्व महाराज और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कर्ण सिंह ने अपनी आत्मकथा में! वह अपनी आत्मकथा के पेज नंबर 334 पर लिखते हैं कि-
“यह सभी जानते थे कि इंदिरा गांधी, लाल बहादुर शास्त्री के मंत्रिमंडल में खुश नहीं थी। मुझे लगता है कि शास्त्री जी से उनके निजी संबंध कभी सौहार्दय पूर्ण नहीं रहे। उन दिनों यह अफवाह गर्म थी कि शास्त्री जी के ताशकंद से लौटने के बाद, वह मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे देंगी, लेकिन नियति को कोई और ही योजना थी।"
इंदिरा गांधी शास्त्रीजी से नाराज रहती थी
इंदिरा गांधी, शास्त्री जी के मंत्रिमंडल में सूचना एवं प्रसारण मंत्री थी। लेकिन वह खुद के लिए विदेश मंत्री जैसा अहम पद चाहती थी। कहते हैं कि इसी वजह से वह शास्त्री जी से नाराज रहती थी। यह बात मैं नहीं कह रहा, बल्कि इस बात को लिखा है भारतीय इतिहास के एक महान पत्रकार इंदर मल्होत्रा ने। 'टाइम्स ऑफ इंडिया' के पूर्व संपादक इंदर मल्होत्रा इंदिरा गांधी को बेहद करीबी से जानते थे। उन्होंने इंदिरा गांधी की बायोग्राफी भी लिखी थी और इसी बायोग्राफी में इंदर मल्होत्रा ने लिखा था कि-
“एक रविवार की सुबह, मैं इंदिरा गांधी से दिल्ली के एक होटल में मिला। उन्होंने मुझे बताया कि शास्त्री ने सुवर्ण सिंह को विदेश मंत्री बना दिया है। जबकि नेहरू हमेशा विदेश मंत्रालय अपने पास रखते थे। इंदिरा गांधी ने गुस्से में आगे कहा कि 'क्या यह फैसला लेने से पहले शास्त्री जी को मुझसे या फिर वित्तमंत्री टीटी कृष्णमचारी से सलाह नहीं लेनी चाहिए थी?' मैं पद नहीं चाहती, लेकिन फिर भी मुझसे सलाह ली जानी चाहिए थी।”
इंदिरा गांधी के महत्वाकांक्षा को शास्त्रीजी पहचानते थे
इंदिरा गांधी विदेश मंत्री बनना चाहती थी और शास्त्री जी उन्हें यह पद नहीं दे रहे थे। इस बात पर अगर आपको वरिष्ठ पत्रकार इंदर मल्होत्रा की लिखी बातों पर यकीन नहीं हो रहा है तो फिर आपको एक दूसरे वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर की आत्मकथा को पढ़ना चाहिए। इस किताब के पेज नंबर 180 पर वो लिखते हैं कि-
“एक बार शास्त्री जी ने मुझसे जानना चाहा था कि मेरी नजर में सबसे अच्छा विदेश मंत्री कौन हो सकता है? उस समय विदेश मंत्रालय शास्त्री जी के पास ही था, लेकिन बीमारी की वजह से डॉक्टरों ने उन्हें काम का बोझ कम करने की सलाह दी थी। मैंने उन्हें इंदिरा गांधी का नाम सुझाया। इस पर शास्त्री जी बोले कि नैयर साहब! आप राजनीति नहीं समझते। इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनना चाहती हैं, विदेश मंत्री बनने से उनका महत्व बहुत ज्यादा बढ़ जाएगा।”
इंदिरा गांधी लंदन में बसना चाहती थी
शास्त्री जी की ईमानदारी और अपनी अनदेखी से इंदिरा गांधी परेशान हो गई थी। शास्त्री जी के होते हुए उन्हें राजनीति में अपना कोई भविष्य नजर नहीं आ रहा था। लिहाजा वह सब कुछ छोड़-छाड़ कर के लंदन में बसने का प्लान बना चुकी थी। जहां उनके दोनों बेटे राजीव गांधी और संजय गांधी उस वक्त पढ़ाई कर रहे थे। यह बात खुद इंदिरा गांधी ने अपनी बेहद करीबी अमेरिकी दोस्त डोरोथी नॉर्मन को एक पत्र में लिखी थी। इंदिरा का यह पत्र खुद डोरोथी नॉर्मन ने अपनी किताब ‘इंदिरा गांधी लेटर्स टू एन अमेरिकन फ्रेंड’ में प्रकाशित किया था।
इस पत्र में इंदिरा गांधी ने डोरोथी नॉर्मन से लंदन में बसने के लिए होने वाले खर्चे और अपने पिता नेहरू की किताबों से मिलने वाली रॉयल्टी पर बात की थी। दरअसल हुआ यूं था कि लाल बहादुर शास्त्री ने ताशकंद जाने से ठीक दो दिन पहले 31 दिसंबर 1965 को वित्त मंत्री टीटी कृष्णमाचारी को बर्खास्त कर दिया था। कृष्णमाचारी इंदिरा गांधी के बेहद करीबी माने जाते थे। कुलदीप नैयर ने इस बारे में अपनी आत्मकथा के पेज नंबर 196 पर जो लिखा है, उसे आप ध्यान से पढ़िए!-
“टीटी कृष्णमाचारी के इस्तीफे के बाद इंदिरा गांधी को लगने लगा था कि अब उनके दिन भी पूरे हो गए हैं और किसी भी दिन उनका भी पत्ता कट सकता है। इंदिरा गांधी के काफी नजदीकी माने जाने वाले दिनेश सिंह के अनुसार वह इंग्लैंड में बसने की सोचने लगी थी। उन्होंने वहां रहने के लिए होने वाले खर्चे और नेहरू की किताबों से मिलने वाली रॉयल्टी के बारे में भी पता करवाया था। इंदिरा गांधी को एहसास हो चुका था कि भारत- पाकिस्तान युद्ध के बाद शास्त्री की ताकत बढ़ गई है और उन्हें देश के हीरो के रूप में देखा जाने लगा है।”
शास्त्रीजी इंदिरा गांधी को ब्रिटेन में हाई कमिशनर बनाना चाहते थे
इंदिरा गांधी लंदन बसने का तो सोच ही रही थी, बल्कि प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री भी उनको भारतीय राजनीति से दूर लंदन भेजना चाह रहे थे। यह सनसनी खेज खुलासा किया था वरिष्ठ पत्रकार इंदर मल्होत्रा ने अपनी किताब “इंदिरा गांधी” में। वो इस किताब में लिखते हैं कि-
“टीटी कृष्णमाचारी के इस्तीफे की खबर मिलने के बाद मैं इंदिरा गांधी के घर पहुंचा। इंदिरा गांधी ने तत्काल मुझसे कहा कि अब मैं मंत्रिमंडल से बाहर फेंकी जाऊंगी। वैसे भी अब इस कैबिनेट में रहने के लिए कुछ नहीं बचा है। कृष्णमाचारी के इस्तीफे से इंदिरा गांधी आहत थी, क्योंकि वह नेहरू के वफादार थे। इंदिरा गांधी अब एक बार फिर सब कुछ छोड़कर लंदन जाने का मन बना चुकी थी। उन्हें इस बात का भी शक था कि शास्त्र भी यही चाहते हैं। लाल बहादुर शास्त्री ने अपने सलाहकारों को यह गुप्त बात बताई थी कि इंदिरा गांधी का दिल्ली की बजाय लंदन में रहना बेहतर होगा। शास्त्री, इंदिरा गांधी को ब्रिटेन में भारत का हाई कमिश्नर का पद देना चाह रहे थे!”
लेकिन इस देश की नियति ने कुछ और ही सोच रखा था। लाल बहादुर शास्त्री एक ताबूत में बंद होकर ताशकंद से भारत लौटे और हमेशा के लिए ब्रिटेन में बसने की सोच रही इंदिरा गांधी इस देश की प्रधानमंत्री बन गई। निश्चित तौर पर लाल बहादुर शास्त्री की मौत का इंदिरा गांधी को राजनीतिक लाभ मिला। लेकिन सीधे-सीधे ये कह देना गलत होगा कि शास्त्री की मौत के पीछे इंदिरा गांधी का हाथ था!
हां! यह जरूर है कि लाल बहादुर शास्त्री की मौत सामान्य नहीं थी, बल्कि एक साजिश थी। और इस साजिश के पीछे कौन था? यह तभी सामने आ सकता था, जब इसकी ईमानदारी से जांच करवाई जाती। जो कभी की ही नहीं गई।
देखा जाए तो अभी भी देर नहीं हुई है, भारत सरकार को देश के इस लाल की रहस्यमई मौत की जांच करवाना चाहिए। शायद कोई सच सामने आ सके। वरना तो इस देश के लोग इतिहास भूलने की बीमारी के पुराने मरीज रहे हैं। और क्या पता! एक दिन शायद यह लोग देश के सबसे ईमानदार प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को भी भूल जाएं।